सिनेमा और साहित्य हमेशा से समकालीन समाज का आईना रहा है, जिसमें उस समय के मुद्दे अलग-अलग रूपों में कला सृजन के माध्यम से उतरते रहें हैं परंतु इनमें बहुजन समाज के मुद्दे हमेशा से ही लगभग नदारद रहें हैं। इनमें जहाँ कहीं भी दलित पात्रों को सिनेमा ने उठाया भी है तो वे पात्र बेहद कमज़ोर, लाचार, बेबस और जातिवादी भेदभाव के मारे दिखते हैं। उनमें संघर्ष या लड़ने का माद्दा नहीं दिखता। सिनेमाई इतिहास से जाति का मुद्दा ऊठाने वाली तमाम फिल्मों उठाकर देखें तो उनमें दलित नायक-नायिकाओं को हमेशा ही स्थितियों के आगे घुटने टेकते और समझौता करते दिखाया गया है, जिसका भला भी कोई गैर दलित नायक ही करता दिखता है।अधिकांशतः ऐसी फिल्मों का निर्देशन तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने किया और पात्र भी लगभग इसी पृष्ठभूमि से रहें हैं। इसलिए संवेदना से उपजा सृजन भोगा हुआ यथार्थ की बराबरी नहीं कर सका। नतीज़न इनमें जाति से जुड़ी तकलीफ़ और संघर्ष से पूरे समाज को संबोधित करने की अग्निलीक नहीं दिखाई देती।
हाल ही में रिलीज़ हुई अनुराग बसु निर्देशित फ़िल्म मुक्काबाज़ में भी जाति की पहचान को हरिजन कहकर न केवल छुपा लिया गया बल्कि दलित पात्र को समझौते से झुका कर जातीय श्रेष्ठता को स्थापित किया गया। फ़िल्म चौरंगा में भी चातुर्वर्ण व्यवस्था को दिखाते हुए दलित नायिका( तनिष्ठा चटर्जी) और उसके परिवार को समझौता करते हुए दिखाया गया है। फिल्म लगान में एक दलित पात्र 'कचरा' दिखाया गया था जिसे पोलियो में हुई टेढ़ी उंगलियों के साथ एक गैर-दलित नायक भुवन( आमिर खान) मौका देता है। फ़िल्म आरक्षण में भी एक दलित पात्र( सैफ अली ख़ान) नज़र आता है लेकिन एक गैर दलित(अमिताभ बच्चन) ही उसका उद्धार करता है। फिल्म गुड्डू रंगीला में अरसद वारसी को दलित चरित्र के रूप में दिखाया गया है, जिसकी पहचान पूरी तरह साफ नहीं है लेकिन वो प्रतिरोध करता दिखता है। यह प्रतिरोध शुद्र-द राइजिंग में भी दिखा था लेकिन उसे एक फीचर फिल्म ही माना गया। 90 के दशक पूर्व जाति के प्रश्न को पर्दे पर केवल पीड़ित होने तक सीमित कर दिया गया था। फिल्मों के नए युग की शुरुआत के बाद भी कई और फिल्में भी आई जिनमें सब कुछ साफ दिखते हुए भी जाति की पहचान को छुपा लिया गया जिनमें हिचकी, निल बटे सन्नाटा, माँझी-दी माउंटेनमैन, शोर इन दी सिटी आदि को शामिल किया जा सकता है। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फ़िल्म मसान में ज़रूर दलित नायक को अपनी जातिगत पहचान और संघर्ष के साथ प्रस्तुत किया गया हालाँकि प्रतिरोध की गूँज वहाँ भी सुनने नहीं मिली। यानि सिनेमा जगत जाति पीड़ित को दिखाता रहा है लेकिन प्रतिरोध नहीं।
पिछले कुछ दशकों में बहुजन मूवमेंट जिस तेज़ी से उभरा है उसका प्रभाव हिंदी सिनेमा जगत में कहीं नहीं दिखता। हालाँकि क्षेत्रिय भाषायी फिल्मों जैसे मराठी, तमिल, तेलगु आदि में जरूर दलितों के प्रतिरोध को दिखाया गया है। फिल्म फंड्री, सैराट, कबाली, कुक्कुस ऐसी ही कथानक वाली फिल्में हैं। इन फिल्मों में निर्देशक, पात्र से लेकर क्रू मेंबर्स तक बहुजन पृष्ठभूमि से रहे हैं, और इन्होंने अपने लोगों के भोगे हुए यथार्थ को बेहद सच्चाई और ईमानदारी से पर्दे पर बख़ूबी उतारा है चूँकि ये खुद उसी संघर्षशील समाज का हिस्सा हैं। नागराज मंजुले द्वारा निर्देशित फ़िल्म सैराट ने क्षेत्रीय भाषा सिनेमा के सभी रिकॉर्ड्स तोड़ते हुए सबसे ज्यादा कमाई की, राष्ट्रीय पुरस्कार भी हासिल किया और महाराष्ट्र की सीमाओं से निकलकर पूरे देश तक पहुँची भी। अब जबकि बहुजन मूवमेंट अपनी पहचान, मुद्दे, संघर्ष, प्रतिनिधित्व और प्रतिकार को राजनीति और समाज के केंद्र में ले आया है तब भी सिनेमा जगत ने इस परिवर्तन को जगह देना ज़रूरी नहीं समझा।
अब तक सिनेमा से नदारद रखी गई प्रतिरोध और संघर्ष की गूँज को बेहद संजीदगी से सिनेमाई पर्दे पर उतार देने का साहस किया है निर्देशक पा.रंजिथ ने अपनी फ़िल्म 'काला' में। रजनीकांत अभिनीत फिल्म 'काला' मूल रूप से तमिल में बनी और हिंदी में डब हुई है। काला न केवल सिनेमाई इतिहास में क्रांति का उद्घोष है बल्कि बहुजन मूवमेंट में एक महान योगदान है। पहली बार रुपहले पर्दे पर बहुजन मूवमेंट को उसके प्रतीकों, प्रश्नों, प्रतिनिधित्व, प्रतिकार और प्रतिक्रांति के हर मुद्दे को संदेश के साथ स्थापित किया गया है। फ़िल्म में दलित-वंचित जातियों और अल्पसंख्यक तबकों का प्रतिनिधित्व करता हर पात्र स्वाभिमान, सम्मान और अधिकार की चेतना से लैस है। फिल्म का नायक कामगारों और ग़रीबों के अधिकारों के लिए संघर्ष करता है। इस फ़िल्म में संवादों, प्रतीकों, मूर्तियों, चित्रों और भाषा आदि से वास्तविक बहुजन भारत की उपस्थिति और उनकी शक्ति का बेबाक फिल्मांकन किया गया है। पूरा बहुजन विमर्श एक कहानी की शक्ल में 'काला' फिल्म में प्रस्तुत हुआ है।
फिल्म 'काला' के नामकरण के पीछे इस देश के बहुजनों की मूल पहचान, मूल रंग, ऐतिहासिकता, ब्लैक पैंथर मूवमेंट का संघर्ष, मेहनत का रंग और भारत सहित पूरे विश्व में आज भी होने वाला रंगभेद के विरोध का प्रतिनिधित्व करता है। एक और प्रतीक काला का अफ्रीका महाद्वीप से भी जुड़ता है। मेनस्ट्रीम में अफ्रीका को काले और पिछड़ों का प्रतीक माना गया है और अमेरीका-ब्रिटेन को गोरों और आधुनिकता का। अब तक अमरीका ही विश्व को परिवर्तन और आधुनिकता की तमीज़ सिखाता रहा है। नायिका ज़रीना(हुमा क़ुरैशी) का अमरीका/ ब्रिटेन जैसे विकसित देशों की बजाय अफ्रीका से आना और वंचित तबकों की स्थिति में अपने नजरिये से परिवर्तन की कोशिश करना। ज़रीना एक महिला है,एक मुस्लिम है और स्लम में बढ़ी लिखी है। जरीना के माध्यम से आम मुसलमान की सिनेमाई छवि जिसमें उन्हें रूढ़िवादी और पिछड़ा दिखाया जाता है उसे भी आधुनिकता से बदला गया है। वरना अब तक तो सिनेमा किसी सवर्ण हिंदू अमरीका रिटर्न(फ़िल्म स्वदेश) में ही परिवर्तन की काबलियत होती है, दिखाता आया है।
बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा दिए गए नारे "शिक्षित हो, संघर्ष करो, संगठित करो" को काला मूवी का केंद्रीय विषय बनाया गया है। पूरी मूवी में मुख्य पात्र काला जो कि दलित है सभी को अपने बच्चों को पढ़ाने और आगे बढ़ाने की सीख देते दिखता है। फिल्म में शुरू से लेकर आख़िर तक संघर्ष को बेहद सशक्त तरीक़े से दिखाया गया है। साथ ही फ़िल्म में बहुजनों समाज के संगठन की शक्ति का महत्व बताया गया है कि यदि वे एक हो जाएँ तो क्या कर सकतें हैं। 'बहुजन असहयोग आंदोलन' की सफलता के माध्यम से आज के पूरे बहुजन समाज को संबोधित करते हुए निर्णायक सन्देश और प्रेरण रचा गया है।
पहली बार एक बड़ी फिल्म बेहद सशक्त तरीके से बहुजन अस्मिता की प्रतिरोधी चेतना के साथ पर्दे पर आई है जिसमें नायक नहीं प्रतीक रूपी 'मूकनायक' देखने को मिलते हैं। प्रतीकों पर बहुत बारीकी से काम किया गया है इसलिए फ़िल्म की हर एक फ्रेम हज़ार- हज़ार बातें कहती हैंl फिल्म में मुख्य पात्र काला करिकालन की जाति सीधे ना बता उसे प्रतीकों के माध्यम से उजागर किया गया है। नायक 'काला' के पीछे बैकग्राउंड में महात्मा बुद्ध, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब आंबेडकर, इयाती थॉस, पेरियार, 'असुर' किताब,गौतम बुद्ध विहार, बोधि वृक्ष, बाबासाहेब अम्बेडकर स्पीचेस एंड वॉल्यूम की सभी किताबें और धम्म चक्र आदि पोस्टर, चित्रों और स्टिकर के माध्यम से दिखते हैं। यहाँ तक कि 'काला' की गाड़ी की प्लेट में 1931और 1956 नम्बर से राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस एवं धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस को भी स्मरण किया गया है। काला (रजनीकांत) और हरिदेव अभयंकर (नाना पाटेकर) के पात्रों के माध्यम से अधिकारों के संघर्ष का कथानक रचा गया है। हरिदेव, उच्चवर्ण के लोगों की पार्टी ‘नवभारत राष्ट्रवादी पार्टी’ का नेता है, वह खुद को रामभक्त कहता है और कहता है कि वो पावर के लिए कुछ भी कर सकता है। उसे स्लम एरिया धारावी की बेशकीमती ज़मीन में दलितों-गरीबों की उजाड़ कर बड़ी बिल्डिंग्स बनानी हैं। वह क्लीन-प्योर मुंबई और डिजिटल धारावी बनाने की बात करता है। मुंबई की धारावी रावण की लंका का प्रतीक बनी है, जिसे सरकार के स्वच्छ भारत और डिजिटल मुंबई जैसे अभियान की राह में रोड़ा दिखाया गया। फिल्म निर्देशक पा.रंजिथ ने बड़ी चालाकी से स्वच्छ भारत और डिजिटल इंडिया की याद दिलाई है। वहीं रावण का प्रतीक नायक गरीबों-वंचितों के अधिकारों के लिए नेतृत्व करते हुए दिखाया गया है। काली शर्ट, काला चश्मा, काली धोती, काली चप्पल, काला चश्मा, काली गाड़ी और काली छतरी रखे काली रंगत वाला नायक ; गोरे-गठीले और सफेद होने की पूर्व स्थापित मान्यताओं बिल्कुल विपरीत नैरेटिव खड़ा करता है। लेकिन फिल्म का विलेन इसके बिल्कुल उलट है जो सफेद कपड़ों में नजर आता है, जो सफेदपोश के पीछे छुपे अमानवीय चेहरे को प्रस्तुत करता है। लंका दहन की तरह 'काला' की धारावी को भी जलाया जाता है। रामकथा के शोर के बीच रावण वध की कहानी परदे पर दिखती है, जिसमें आर्य-अनार्य संघर्ष को बहुजन दृष्टि से भी समझाया गया है और आख़िर में प्रतिरोध में हर वंचित नागरिक रावण होकर राम का बाना ओढ़े राजनीति के समकालीन प्रतीक का सामूहिक वध करते हैं। क्लाइमेक्स में काले पर लाल और लाल पर फिर नीले रंग की स्थापना कहानी में अम्बेडकरवादी वैचारिकी को स्थापित किया गया है।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में 'काला' पहली फ़िल्म है, जिसके किरदार जय भीम के नारे लगाते हैं। फिल्म के डॉयलॉग हक़ों की मुनादी करते हैं जैसे- "मेरी जमीन और मेरे अधिकार को ही छीनना तेरा धर्म है और ये तेरे भगवान का धर्म है तो मैं तेरे भगवान का भी नहीं छोड़ूंगा।" या समकालीन समाज में दलितों-आदिवासियों के हक़ में सवाल ऊठाते हुए कहते हैं -"वो तो कुछ कानून हम गरीबों के लिए भी बनें हैं, वरना तुम सबने हम लोगों को सात समंदर पार फेंक दिया होता"।
आंदोलन के दौरान"सवाल करेंगे तो मार देंगे" डॉयलॉग के साथ काला इस समय के सबसे जरूरी सवालों को ऊठा रहा है। इस डायलॉग से 2 अप्रैल के भारत बंद के बाद दलितों पर बढ़ती दमन की घटनाओं, उन्हें झूठे आरोपों में जेल भेजने, भीमा कोरेगाँव के आरोपियों को बरी करने और दलित एक्टिविस्टों को माओवादी बोलकर जेल में डालने, तमिलनाडु के स्टरलाइट प्रोटेस्ट में मासूमों पर गोली चलाने की घटनाएँ सीधे-सीधे संबोधित की गई है।
धारावी के 'धोबी' घाट पर कब्जा करने आए जन राष्ट्रवादी पार्टी के नेता हरि के करीबी लोगों को प्रतिरोध कर वापस लौटाने और उसके नजदीकी आदमी विष्णु के मारे जाने के बाद कलफ़दार सफेद कपड़ा पहने हरि जब काला के घर पर आता है, काला से हाथ मिलाने के बाद अपने सफेद रूमाल से हाथ पोंछता है और काला की पत्नी सेल्वी के हाथों लाया पानी पीने से मना कर देता है। यह सीन अब तक भी भारत में दलितों के साथ अछूतों की तरह बर्ताव करने और वर्तमान राजनीति में दलित टूरिज़्म की बढ़ती प्रवत्ति के सच को बताने के लिए फिल्माया गया है। इस बात को सेल्वी के डायलॉग से बताया भी गया है कि 'सफेद कपड़े पहनने से क्या होता है... इसने हमारा पानी तक पीने से मना कर दिया।' ये बयान बढ़ती हुई दलित चेतना और सवर्णों के जातिवाद को साफ तरीक़े से उघाड़ता है। फ़िल्म का डायलॉग "अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ ऊठाएँगे-लड़ेंगे तो हमें गुंडा बोलेंगे" वर्तमान में सत्ता के ख़िलाफ़ बोलने वालों की हत्या, झूठे मुक़दमे, रासुका लगाकर जेल में ठूँसने जैसे सरकारी आतंक को दिखाता है। यह डॉयलॉग भीम आर्मी के चन्द्रशेखर रावण को अब तक जेल में जेल में रखा गया है, सहारनपुर में भीम आर्मी के सदस्य कमल वालिया की दिनदहाड़े गोलीमार कर हत्या किया जाना, सहारनपुर दंगे के पीड़ितों पर झूठे मुकदमे, भीमाकोरेगाँव में पीड़ितों-गवाहों की हत्या( 17 वर्ष की पूजा सकट) और उन्हें पुलिस प्रशासन द्वारा परेशान किया जाना, 2 अप्रैल के भारत बंद का हिस्सा बने लोगों की हत्या और दंगे के आरोप में जेल में डालना, शुजात बुख़ारी, गौरी लंकेश, गोविंद पानसरे, दाभोलकर जैसे कलम के सिपाहियों की हत्या करवाया जाना, आदिवासियों की सरकार नियोजित हत्याएँ सहित जेएनयू के बिरसा-फुले-अम्बेडकर स्टूडेंट यूनियन के सदस्यों की विश्वविद्यालय से बर्खास्तगी आदि घटनाओं से जुड़ता है।
'काला' दलित-मुस्लिम एकता को बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है। धारावी में सभी बहुजन बहुत प्यार,सम्मान और एकता के साथ रहते हैं। नायक काला अपने मुस्लिम भाइयों के साथ नमाज़ पढ़ता है, रोज़ों में इफ्तार पार्टी देता है और ईद को सब गले मिलकर खुशियां मनाते हैं। नायिका जरीना(हुमा क़ुरैशी) और नायक काला के प्रेम की पहले की कहानियां भी दलित-मुस्लिम प्रेम को स्थापित करने की कवायद है। जहाँ दिखाया गया है कि दोनों के प्यार को परिवार ने स्वीकार कर उनकी शादी भी तय कर दी थी, और ऐन शादी के दिन तिलक आउट चोटीधारी( सवर्ण) तलवार लिए मारकाट और दंगा मचाते हैं। जिसके कारण दोनों प्रेमी हमेशा के लिए बिछड़ जाते हैं। प्रेम में सम्मान और समानता का कैनवास ग्राफ़िक्स के माध्यम से खींचा गया है। जब दलित-मुस्लिम एकता को देखकर सत्ताधारी सवर्ण उनके बीच लड़ाई करवाने और एकता तोड़ने की कोशिश करते हैं और सुवर का माँस( जो इस्लाम मे वर्जित है) मस्जिद में फेंक देते हैं और दंगे करवाना चाहता है। तब नायक काला अपने सभी दलित-मुस्लिम भाइयों को बताते हैं कि किस तरह वे बेहद प्रेम से रहते हैं और क्यों उनकी एकता तोड़ी जा रही है। 'रमेश का भाई रहीम और अब्दुल का जीजा गणेश' जैसे प्रेम-सद्भावपूर्ण रिश्तों के बीच राजनीतिक-सामाजिक सशक्तीकरण का संदेश देती है। समकालीन राजनीति और समाज की यह मांग है कि दलित- मुस्लिम बिल्कुल एकजुटता दिखायें। इसमें बहुजनों की ग़रीबी, शहरीकरण की समस्याएं, रोजगार के मुद्दे, सरकार की नाकामी, सत्ता और बिल्डर माफिया के गठजोड़, सवर्ण तंत्र की चालबाजियां, एनजीओ का खेल, सांप्रदायिक तत्वों को दिखाया गया है।
इस फ़िल्म की एक और सबसे खास बात इसमें महिला पात्रों का बेहद मजबूत, स्वाभिमानी और संघर्षशील होना है। सेल्वी(काला की पत्नी), जरीना(काला की दोस्त), तूफ़ानी(लेनिन की दोस्त) और अन्य सब फ़ायरब्रांड कैरेक्टर हैं, जिनमें व्यवस्था से लड़ जाने का माद्दा है। ये केवल चूल्हे-चौके तक सीमित नहीं बल्कि अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को बख़ूबी निभाती हैं। काला बच्चे, बूढ़े, महिलाओं किसी को भी अपने से छोटा या असमान नहीं समझता बल्कि सभी को पूरा सम्मान देता है। मूवी में जेंडर सेंसिटिविटी और स्त्री-पुरुष समानता को बहुत गंभीरता से दिखाया गया है। नॉन कॉपरेशन मूवमेंट के दौरान भी इस बात का ध्यान रखते हुए काला पुरूष सदस्यों को कहता है- "खाना बनाना सिर्फ औरतों की जिम्मेदारी नहीं है।" ये पात्र सवर्ण फेमिनिज्म के उलट "दलित फेमिनिज्म" का प्रतिनिधित्व करती हैं। वास्तव में बहुजन महिलाओं में जो संघर्ष की चेतना और बागी तेवर हैं, फ़िल्म के महिला पात्र उस क्रांतिलीक से दमकते हुए प्रस्तुत हुए हैं। जिस देश में महिलाओं को पैरों की जूती समझते हुए पैर छुआने की परंपरा प्रचलित है वहाँ काला किसी भी महिला-बच्चे से पैर छूआने जैसी घृणित परम्परा का विरोध करता है और सिखाता है कि पैर छूने जैसी परम्परा को बदलने की ज़रूरत है। यह बात फ़िल्म में तीन बार दिखाई गई है। कोर्ट में केस हारने पर हरि के सामने हाथ बढ़ाते हुए जरीना कहती है-" पैर छुआना नहीं, हाथ मिलाना सीखिये, इसी से इक्वालिटी की शुरुआत होती है।" फिल्म में किसी भी महिला पात्र ने मंगलसूत्र जैसा गुलामी का हिंदुत्व चिन्ह नहीं पहना है।
फिल्म में हरि के नज़दीकी विष्णु की हत्या के बाद धारावी में जातीय श्रेष्ठता के दम्भ से काला के घर आए हरि जब बिना काला से इजाजत लिए वहां से निकल नहीं पाता है और बेहद गुस्से में आ जाता है। अपने जातीय अहं पर पड़ी चोट से अपमानित हरि की सिर्फ एक इच्छा है- काला उसके पांव छूकर माफी मांग ले। लेकिन काला झुकने वालों में से नहीं है। इसलिए जब काला पत्नी और बेटे की हत्या करवाने वाले हरि के घर निहत्था अकेला जाता और हरि के तलवार उठा कर पांव छूने को कहने के बाद काला मेज पर पांव चढ़ा कर हरि को चिढ़ाता है और कहता है कि 'बस इतना ही तो अंतर है'। वहीं वह हरि की पोती के पानी लाने पर पीता है( हरि ने पानी नहीं पिया था) पर अपना पांव छूने से मना करता है और सीधा रह कर नमस्ते कहने को कहता है। यह बच्चों में आत्मसम्मान को जगाने वाला विचार है। यह ब्राह्मणवादी परंपरा में गुलामी और सम्मान के नाम पर पांव छूने की सामाजिक व्यवस्था पर एक जोरदार तमाचा है। इस रूप में फ़िल्म में हिंदुत्व को त्यागकर बुद्धिष्ट संस्कारों को अपनाने की नई परिपाटी की शुरुआत की गई है।
फ़िल्म में उन बहुजनों को भी सम्बोधित किया है जो पढ़-लिख कर आरक्षण का लाभ लेकर नौकरी करते हुए शहरों में बसकर अब कुछ ठीक स्थिति में आ गए हैं पर अपनी जातीय पहचान, संघर्ष जड़ों, गांवों के लोगों और अस्मिता को नकारते हुए अपने बहुजन समाज की अवहेलना करते हैं, खुद को सवर्णों के समक्ष खड़ा कर अपने ही लोगों से घिन करते हैं, उन्हें अपने समाज के मुद्दों से कोई मतलब नहीं होता और वे हमेशा अपने लोगों से दूर सवर्णों की चकाचौंध भरी दुनिया का हिस्सा बना रहना चाहते हैं। नायक 'काला' के बच्चों द्वारा यह कथन बुलवाया गया है जब वो कहते हैं-" अब हम लोगों के पास पैसा है, नौकरी है, हम किसी नई जगह बहुत अच्छे से रह सकते हैं, हम ये जगह(धारावी) में क्यों रहें। यहाँ हालात ठीक नहीं है, इसलिए हम घर छोड़कर जाना चाहते हैं"। तब नायक काला कहता है- " यही हमारी ज़मीन, हमारी सच्चाई है। आज पैसा और नौकरी है तो अपने लोगों और संघर्ष को भूल जाओगे। जगह बदलने से हालात क्या बदल जाएंगे( यानी पहचान तो दलित की होगी) ?जो भी करना है, जो भी बदलना, जो भी ठीक करना है वो इसी ज़मीन-जड़ और अपने लोगों के बीच में रहकर बदलें।" यह डायलॉग सक्षम बहुजनों को "गिव पे बैक टू सोसाइटी" से जोड़ता है, जिसकी बहुजन आंदोलन को बहुत जरूरत है।
फ़िल्म 'काला' में विचारधारा के स्तर पर तर्कों के द्वारा सभी विचारधाराओं पर अंबेडकरवाद को स्थापित किया गया है। फ़िल्म में वे बहुजन जो कॉम्युनिट्स बन गए हैं उस धड़े को संबोधित करता है कि कॉम्युनिस्म से उन्हें क्यों अम्बेडकर की वैचारिकी की तरफ आना चहिए। विचारधारा के इसी संघर्ष को दिखाने के लिए नायक काला के बेटे का नाम ही लेनिन रखा गया है, जो खलनायक हरि और व्यवस्था से अपने तरीक़े से लड़ना चाहता है लेकिन काला द्वारा विरोध किये जाने पर वह घर छोड़कर जाने के लिए तैयार हो जाता है। उस समय एक डॉयलॉग "चार क़िताब पढ़कर,क्रांति की बात करते हैं। हमें अपनी ज़मीन, जड़ों और इतिहास से जुड़कर इसके हिसाब से लड़ने की ज़रूरत है" पूरे कॉम्युनिस्म धड़े के आह्वान करता है। चार क़िताबों को पढ़कर क्रांति की बात बाहर से आयातित कम्युनिस्ट विचारधारा पर सवालिया निशान है। लेनिन के घर छोड़कर चले जाने की बात पर उसे कोई रोकता नहीं है और कई दिनों बाद लेनिन वापस परिवार का हिस्सा बनता है। यह घटनाक्रम बताता है कि किस तरह और क्यों हमें बहुजन आंदोलन के तेज़ी लाने की जरूरत है।
जातिय संरचना से चिपके भारतीय समाज में ब्राह्मण समुदाय यानी सवर्ण जातियों के सामने गैर-सवर्ण जातियों और खासतौर पर दलितों की जो सामाजिक हैसियत आज भी निचले दर्जे की ही मानी जाती है। इसलिए देश के ही अलग-अलग इलाकों में किसी सवर्ण के सामने बोलने, चलने, बैठने, नाम रखने, अच्छे कपड़े पहनने, मूंछ रखने, घोड़ी पर सवार होने, स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वगैरह पर जिस तरह के मनु-स्मृतीय नियमों के तहत पाबंदियां थोपी जा रही हैं वह उनके अंदर की जातिगत सड़ाँध को दिखाती है। शोषितों की शोषकों के खिलाफ अपने हक़ों के लिए बगावत पनप रही है। 'काला' उन्हीं विद्रोही चेतना को समेटती है और मनुवादियों के खिलाफ बगावत की आग की हौसला अफज़ाई करते दिखती है। सिनेमा में सोशल मीडिया को बड़ा महत्व दिया गया है। बहुजनों को काला से सीखने की जरूरत है कि वे कैसे अपने मूवमेंट को सोशल मीडिया के माध्यम से मजबूत बनाएं।
आज के दौर की फिल्मों में राष्ट्रवाद को सिनेमाई पर्दे में लपेट कर हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद परोसा जा रहा है। इसी कड़ी में 'बाजीराव मस्तानी', 'पद्मावत', 'परमाणु', 'बाहुबली', 'मोहनजोदड़ो' जैसी फिल्मों में काल्पनिक कथाओं और ऐतिहासिक आख्यानों को तोड़-मरोड़ कर ब्राह्मणवाद का महिमामण्डन दर्शकों को परोसने की क़वायद के बीच बहुजन क्रांति को पूरी ठसक और शान से उतारने का हिम्मत फ़िल्म निर्देशक पा.रंजिथ ने की है। जिस देश में हर साल रामकथा आयोजन के साथ रावण जलाया जाता है वहाँ रामायण का रूपक लेकर राम प्रतीक का सामूहिक वध दिखाना। सुर-असुर संग्राम की सच्चाई को अभिजन-बहुजन संघर्ष से जोड़ना और विद्रोह में हर एक बहुजन का रावण हो जाना ये सब बहुजन नैरेटिव को धार देनी की फ़िल्म निर्देशक की साहसभरी ईमानदार कोशिश लगती है।
फ़िल्म 'काला' जिन मुद्दों को सफलतापूर्वक सिनेमा पर उतार सकी है, उन मुद्दों से मैन स्ट्रीम सिनेमा अछूतों की तरह बर्ताव करता रहा है। जब भारत के राजनीतिक इतिहास में दलित एकजुटता का सबसे बड़ा प्रदर्शन 'भारत बंद' के रूप में सफल होता है। जिस समय में दलितों पर अत्याचार बढ़ रहें हैं, ऊना से लेकर कोरेगांव के प्रतिरोध के स्वर पूरे बहुजन समाज की आवाज़ बन रहे हैं, जब बहुजन समाज पूरी मुखरता से अपने हक़ों की मुनादी कर रहा है, तब साहित्य और सिनेमा की ज़िम्मेदारी है कि वह समाज की आवाज़ को दर्ज करे। बहुजन क्रांति की लिहाज से 'काला' को नींव का पत्थर माना जाना चाहिए।