गुरुवार, 10 मई 2018

मौत नहीं सरकार प्रायोजित हत्या


 "सचिन वालिया की हत्या में ठाकुरों ने तो बस बंदूक का ट्रीगर दबाया, निशाना तो सरकार ने लगाया था, जिसके दम पर ठाकुर कूद रहें हैं।"
पिछले साल भी महाराणा प्रताप की जयंती पर ठाकुरों ने दंगे किये थे, शब्बीरपुर से शुरू हुआ मौत का खेल अभी रुका कहाँ हैं क्योंकि इस आग को हवा तो सरकार दे रही है। पिछले साल भी जातीय दम्भ से उपजी घृणा ने पूरे सहारनपुर में कत्लेआम मचाया था। पुलिस-प्रशासन ने ठाकुरों को पूरी छूट दी थी कि वो जो चाहें करें 3-4 घण्टे जमकर मार-काट मचाए हम कुछ नहीं कहेंगे। उन्होंने वही किया नतीज़न भयंकर दंगे हुए जिसमें जान-माल का हर नुकसान दलितों का हुआ था। उल्टा चन्द्रशेखर रावण पर रासुका लगाकर उसे जेल में डाल दिया गया। सहारनपुर दंगों में......एक भी ठाकुर को कुछ नहीं हुआ क्योंकि सिस्टम ठाकुरों के साथ था।
कल भी महाराणा प्रताप भवन पर 800 पुलिस वाले तैनात थे फिर भी पुलिस की नाक के नीचे भरे बाजार में सचिन वालिया को ठाकुरों ने पीछे से गोली मारी। और पुलिस कह रही है कि गोली मारने वाले को किसी ने नहीं देखा। इन्हें गोली मारने वाला मिलेगा भी नहीं, और अगर मिल गया तो इसे ये प्रॉपर्टी विवाद या पर्सनल दुश्मनी बता देंगे। जाँच पूरी हो जाएगी और न्याय तो सचिन के साथ ही धू-धू करके जल जाएगा।

इसके बाद हापुड़ से शुरू हुई आरएसएस की सामाजिक समरसता और सद्भावना यात्रा सहारनपुर भी पहुँचेगी किसी दलित के यहाँ बाहर से खाना मंगा कर खाएंगे, टूरिज़्म करेंगे। आपस में मिलजुलकर योगी-मोदी-शाह जैसे गिद्धों को दलित मित्र पुरस्कार या दलित रत्न जैसे पुरस्कार दे दिये जायेंगे। भारत माता की जय होगी। झूठे आरोप लगाकर भीम आर्मी से कुछ औऱ युवाओं को उठाकर जेल में बंद कर दिया जाएगा। ये सब सामने से होगा और पीछे से सचिन भाई के बाद फिर किसी दलित का नम्बर होगा। भीम आर्मी से जुड़े लोगों , जागरूक दलितों-बहुजनों पर अगला निशाना लगाया जाएगा।

ये सबकुछ इतनी आसानी और आराम से इसलिए हो जाएगा क्योंकि संसद, प्रशासन, पुलिस, मीडिया सब जगह सवर्ण दलालों के ही कब्ज़ा है। सचिन की मौत किसी ठाकुर की गोली से नहीं बल्कि सवर्ण/ब्राह्मणवादी सरकार द्वारा प्रायोजित है।

सचिन भाई तुम उन अनगिनत बहुजन योद्धाओं में से एक हो, जिनकी वजह से हम जी रहे हैं.....क्रांतिकारी जयभीम के साथ अलविदा भाई।
#SachinWalia
#BahujanWarrior

बुधवार, 9 मई 2018

"सुप्रीम कोर्ट की जाति पीड़ितों से अपेक्षाएँ और आग्रह"

भारत जैसे देश में जातिगत भेदभाव एक स्याह सच्चाई है, जिसे तथाकथित ऊँची कही जाने वाली जातियाँ इसे सामान्य मानते हुए स्वीकार्यता भी देती है और इसका पालन भी करती हैं। जहाँ जातिगत भेदभाव सबसे निर्मम रूप में मौजूद हो वहाँ 'अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम जैसे सुरक्षात्मक कानूनों की प्रासंगिकता निर्विवाद रूप से बहुत अधिक है। ताकि अस्पृश्यता एवं जातिगत विद्वेष जैसी अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध भय उत्पन्न हो सके और समाज में ऐसी अमानवीय अपराध न हो।
परन्तु एससी-एसटी एक्ट में हुए बदलाव के बाद न केवल यह भय ख़त्म हो गया है बल्कि एक तरह से अपराध करने के लिए प्रोत्साहन भी मिल गया है। किसी वारदात के हो जाने पर गिरफ्तारी से पहले जाँच एवं अग्रिम जमानत जैसी व्यवस्था ने एससी-एसटी एक्ट को सामान्य प्रक्रिया से भी बहुत कमज़ोर बना दिया है जिससे इस अधिनियम के होने के मायने ही ख़त्म हो गए हैं। ऐसे में यदि आरोपी, जाँच अधिकारी या पुलिस महकमें के मुखिया का जात भाई यानि सजातीय तथा परिचित हो तो जाँच और सबूतों को किसी भी हद तक पीड़ित के विरूद्ध प्रभावित कर सकता है। ऐसे में एक्ट में यह बदलाव इस कानून के दुरूपयोग के नए दरवाज़े खोलता है जो सीधे उच्च जातियों को ही फ़ायदा पहुँचायेंगे। इस बात की पूरी संभावना है कि यदि आरोपी व्यक्ति को अग्रिम ज़मानत दे दी जाती है तो वह पीड़ित को केस वापस लेने के लिए दबाव बनाने और सबूतों से छेड़छाड़ करने का काम कर सकता है।

किसी भी कानून का मुख्य उद्देश्य समाज को व्यवस्था,स्थायित्व और न्याय देना होता है। किसी अपराध का सिद्ध न हो पाना उसके घटित न होने की अंतिम व्याख्या नहीं होती। ऐसे कई अपराध होतें हैं जो घटित होने के बाद भी साबित नहीं हो पाते। अपराध के सिद्ध होने में कई पहलू शामिल होते हैं जैसे पीड़ित की मानसिक-शारीरिक-आर्थिक-सामाजिक स्थिति, पुलिस की सबूत जुटाने की तत्परता,अच्छा वक़ील, राज्य एजेन्सियों का सहयोग, परिवार और दोस्तों का रवैया आदि। परंतु अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध होने वाले अपराध के मामलों में ये सारी परिस्थितियां प्रतिकूल होती हैं। क्योंकि आज भी वे समाज में हाशिये पर स्थित हैं, जिनकी स्थिति जातिगत भेदभाव के कारण बेहद दयनीय है। इन वर्गों की भागीदारी संसद,कार्यपालिका, न्यायपालिका, प्रशासन, पुलिस, उद्योग, मीडिया में लगभग न के बराबर है। कमज़ोर आर्थिक और सामाजिक स्थिति होने के चलते इन पर दोहरी मार पड़ती है। इन सब स्थितियों के चलते अपराध साबित करने की परिस्थिति अत्यंत प्रतिकूल होती है। इन प्रतिकूल स्थितियों के कारण दोषसिद्धि न होने पर कानून के दुरूपयोग का टैग मिल जाता है।  इसलिए दोषसिद्धि को अंतिम पैमाना माना जाना उचित नहीं है।

एससी-एसटी एक्ट के दुरूपयोग का मामला भी कुछ चयनित स्त्रोतों के आधार पर कर लिया गया। यह तर्क भी नाकाफ़ी है कि दुरूपयोग के कुछ मामले एक्ट को बदलने की वैधानिकता प्रदान करते हैं। कुछ अपवाद कानून बदलने का आधार नहीं देते। यदि देते हैं तो फिर कितने कानून बदले जाएंगे? दहेज़ से लेकर यौन उत्पीड़न तक के मामलों में दुरूपयोग सामने आए हैं तो क्या इन कानूनों को ख़त्म या निष्प्रभावी कर दिया जाए? क्या नई परिवर्तन से किसी भी प्रकार का दुरुपयोग पीड़ित या आरोपी के संदर्भ में नहीं होगा?
सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ कुछ तथ्यों पर विचार किया जो पहली नज़र में इस कानून के दुरुपयोग की डरावनी कहानी कहते थे जबकि उन तथ्यों की सिरे से अनदेखी की गई जो जातिगत दमन और घृणा दिखाते थे। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 से 2017 के बीच दलितों के विरुद्ध हिंसा में 86% की वृद्धि हुई, हर 15 मिनिट में एक दलित के विरुद्ध अपराध किया जा रहा है। साथ ही हर दिन 7 दलित औरतों-लड़कियों के साथ बलात्कार की वारदात घट रही है। हज़ारों मामले हैं जो बहिष्कार, हत्या, बलात्कार, लूट, घर जला देने, अपंग कर देने आदि के भय में रिपोर्ट ही नहीं किये जाते। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट को भी अपेक्स कोर्ट ने अनदेखा कर दिया। क्या यह डरावने हालात इन वर्गों के संरक्षण का सवाल नहीं रखते?

कानून बनाना संसद का दायित्व है, इसलिए इस कानून में बदलाव संसद की सामूहिक चेतना पर भी सवालिया निशान लगाता है जब उसने एससी-एसटी एक्ट को जानबूझकर कठोर बनाया ताकि जातीय घृणा रोकी जा सके। इस रूप में कानून बनाने के संसद के क्षेत्राधिकार में न्याय व्यवस्था द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप किया गया है। क्योंकि जहाँ विधायन स्पष्ट हों वहाँ न्यायपालिका को दिशानिर्देश देने की आवश्यकता या उसमें परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। फ़िर "बलोथिया वाद' में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम 1989 की धारा-18 भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 और 21 उल्लंघन नहीं करती क्योंकि सीआरपीसी की धारा-438 का निषेध विशिष्ट सामाजिक स्थितियों को देखते हुए किया गया था। भारतीय सामाजिक संदर्भों और संरचना पर  विचार किये बिना परिवर्तन का निर्णय एक ख़ास वर्ग को समर्थन देता है।

साथ ही, इस कानून को भातृत्व के अनुकूल बनाने की बात कहकर सुप्रीम कोर्ट जिस वर्ग यानि एससी और एसटी समुदायों से भातृत्व बनाए रखने का आग्रह करती है वो आग्रह भी भारतीय समाज को देखते हुए विरोधाभासी है। ऐसा आग्रह एक तरह से पीड़ितों से ही अपेक्षा है कि वे समाज में समरसता और भाईचारा बनाए रखें। जबकि पीड़ित वर्ग या तो अपनी पीड़ा में चीख़ रहा है या सुन्न हो गया है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय और आग्रह पीड़ितों को कानून से ख़ारिज करने के साथ-साथ न्याय की अंतिम किरण को भी ख़त्म करता है।  

मंगलवार, 8 मई 2018

"ख़ारिज होते संवैधानिक हकों के बीच वंचित तबके"


हाल ही में मध्यप्रदेश में एक घटना सामने आई कि पुलिस कांस्टेबल की भर्ती के दौरान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों की छाती पर एससी-एसटी लिखकर उन्हें जातिगत आधार पर चिन्हित कर अपमानित किया गया। बीते दिनों ही एक दूल्हे को सवर्ण समुदाय के लोगों द्वारा घोड़ी पर बारात सिर्फ़ इसलिए नहीं ले जाने दी गई क्योंकि वो दलित समुदाय से आता था। यहाँ तक कि मध्यप्रदेश पुलिस प्रशासन को उज्जैन जिले में बाकयदा सर्कुलर जारी करना पड़ गया कि दलित दूल्हों को घोड़ी पर बारात निकालने के तीन दिन पहले स्थानीय थाने में नोटिस देना होगा। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर के भौरा गाँव में सवर्णों ने दो मासूम बच्चों पर चोरी का इल्ज़ाम लगाकर उन्हें कुँए में उल्टा लटकाया उन पर पेट्रोल डाला और उनके प्राइवेट पार्ट्स ब्लेड से काट कर दिये। चंद्रशेखर रावण पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की अवधि 3 महीने और बढ़ाई गई। एक बार भी बेल पर कोई सुनवाई नहीं की गई। शाहजहांपुर के पिलखाना गांव में 15 वर्षीय दलित किशोरी को छेड़छाड़ का विरोध करने पर छत से फेंक दिया गया। उत्तरप्रदेश के बदायूं में ठाकुरों ने एक दलित बुजुर्ग व्यक्ति को मजदूरी करने से मना करने पर यह कहते हुए गांव की चौपाल पर बांधकर बेरहमी से मारपीट की,मूँछे ऊखाड़ी और पेशाब पिलाई कि "इनका है कौन, सरकार हमारी है"। 1 जनवरी 2018 को भीमाकोरेगाँव में हिंदू संगठनों द्वारा किये गए दंगों की मुख्य गवाह पूजा सकट की हत्या कर दी गई साथ ही उसके भाई और पिता को झूठे मुकदमों में जेल भेज दिया गया।
ऐसी एक-दो घटनाएं नहीं बल्कि हज़ारों घटनाएं हैं जिनमें कुछ रिपोर्ट की गई तो कुछ पर रिपोर्ट दर्ज ही नहीं की गई। 20 जनवरी 2018 के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद से तो ऐसी घटनाएँ और भी ज्यादा तेज़ी से बढ़ी हैं। ज़ाहिर है सवर्ण वर्ग को यह विश्वास है कि ऐसे कुकृत्य करने पर भी उन्हें कोई नुकसान या क़ानूनी डंडे का सामना नहीं करना है। जब एकतरफा तौर पर विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही वंचित तबकों के हकों को मारने पर आ जाएं तो न्याय की उम्मीद आख़िर किससे हो?
जहाँ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को न्यूनतम मानवाधिकारों से भी वंचित किया जाता हो, जहाँ जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाना सामाजिक गौरव का विषय हो, जहाँ वंचित वर्ग बुनियादी अधिकारों और सुविधाओं से भी महरुम हो वहाँ उनकी सुरक्षा और संरक्षण करने की बजाय उनके संरक्षण के लिए बनाए गए कानूनों को कमज़ोर किया जाना संदेहास्पद है। यह निर्णय उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन है। कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है जबकि यह भूमिका अब सुप्रीम कोर्ट निभा रहा है। न्याययिक अतिसक्रियता से एक कदम आगे बढ़कर कोर्ट लोक अधिकारों के निर्णय भी लेने लगा है। इसलिए केवल 4 महीनों के बेहद कम समय में व्यापक जनसमूह को प्रभावित करने वाला निर्णय ले लिया गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989,2015 का दुरुपयोग होने की दलील पर इस संरक्षण कानून को कमज़ोर कर देना न्यायिक व्यवस्था और सरकार की नीयत पर सवाल उठाता है। सुप्रीम कोर्ट को सिर्फ़ 4 महीने लगे यह निर्धारित करने में कई इस एक्ट का दुरूपयोग हो रहा है। जबकि इस मामले में कोई नोटिस नहीं लिया गया कि कितने मामलों में इस एक्ट के तहत सज़ा मुक़र्रर हुई है? इस कानून में तब्दीली का कोई ठोस आधार ना ही सुप्रीम कोर्ट के पास है और ना ही सरकारी वकीलों ने एक्ट के पक्ष में कोई दलील पेश की।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2016 की रिपोर्ट में भी यह तथ्य स्वीकार किया गया था कि पिछले 4 वर्षों में दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ अपराधों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। वहीं इस रिपोर्ट में इस तथ्य को भी स्वीकार किया गया कि  ऐसे मामलों में सज़ा होने की दर बेहद कम है। अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और मानव अधिकार आयोग तथा गैर सरकारी सर्वेक्षणों की तमाम रिपोर्ट्स में इस स्वीकार्य तथ्य कि दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ अपराध बढ़ें हैं फिर भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसा निर्णय लिया जाना वंचित तबकों को हाशिये पर धकेल देने की मंशा से लिया गया लगता है। रिपोर्ट्स से कम से कम एक बात साफ है कि एससी-एसटी एक्ट का अब तक सही से उपयोग ही नहीं हो सका है इसलिए ऐसे अपराध कम होने की बजाय बढ़ें हैं। 
20 जनवरी को हुए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुरूप नई व्यवस्था के अनुसार अपराध होने पर भी एससी-एसटी एक्ट के तहत पिछले तीन महीने में मामले दर्ज नहीं हुए, क्योंकि जाँच अधिकारी सहित सबूतों को तोड़ने-मरोड़ने के साथ जाँच प्रभावित करने की शक्ति शोषिक वर्ग/सवर्ण वर्ग के पास ही आ गई। इसी शक्ति के चलते 2 अप्रैल को हुए भारत बंद के बाद हज़ारों दलितों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें जेल में ठूँस दिया गया। बंद के दौरान मारे जाने वाले वर्गों की जान-माल को हुई नुकसान की भरपाई पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया। इस नए परिदृश्य में जातिगत विद्वेष को कानून का जामा पहनाकर दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ प्रयोग करने की नई परम्परा विकसित हो गई है।
वंचितों के ख़िलाफ़ खड़ी सरकार को न ही उनके हकों की चिंता है और ना ही उन पर बढ़ रहे अत्याचारों की। सरकार केवल दिखा रही है कि वो वंचित तबकों की हितैषी है, इसके उलट वो लगातार ऐसे निर्णय ले रही है जो इन तबकों को कदम-दर-कदम पीछे धकेल रही है। इसलिए अध्यादेश, संसद विशेष सत्र और पुनर्विचार याचिका जैसे औजारों के बाद भी इस पूरे मामले में सरकार की चुप्पी और सुप्रीम कोर्ट की हीलाहवाली मिलीभगत से जारी है। जब सरकार ही शोषण संरचना में बदल गई है तो संविधान और उसके होने के मायने वंचित तबकों के लिए स्याह अँधेरे के समान है। 

महान बहुजन वीरांगना उदादेवी पासी

उदादेवी पासी  "हेट्स ऑफ ब्लैक टाइग्रेस..... उदा देवी पासी की अद्भुत और स्तब्ध कर देने वाली वीरता से अभिभूत होकर ज...