गुरुवार, 27 सितंबर 2018

खैरलांजी हत्याकांड


खैरलांजी हत्याकांड के 12 साल हासिल क्या ???

खैरलांजी हत्याकांड को आज 12 बरस हो गयेl 29 सितम्बर 2006 में नागपुर से 70 किलोमीटर दूर भंडारा जिले के खैरलांजी गाँव में उसी गाँव के लोगों ने एक दलित परिवार पर अमानवीय अत्याचार कियेl उन दरिंदो ने इंसानियत की सारी हद तोड़ कर जातीय अभिमान में सुरेखा भोतमांगे और उसकी 17 साल की बेटी प्रियंका भोतमंगे को सरेआम गाँव में नंगा करके घुमाया और उनके साथ सामूहिक बलात्कार कियाl वो दरिन्दे इतने पर भी नहीं रुके बल्कि माँ-बेटी की योनी में बैलगाड़ी का सरिया तक डाल दियाl सुरेखा भोतमांगे के दोनों बेटों को भी पीट-पीट कर मार डाला और उनके लिंगो को भी कुचल डाला गयाl यह बर्बरता होती रही और पूरा गाँव मूकदर्शक की तरह सबकुछ देखता रहाl घर के मुखिया भैयालाल भोतमांगे खेत में काम करने गये थे इसलिए बच गयेl गांव के पिछड़ी जाति के 41 पुरुषों ने इस वारदात को अंजाम दिया थाl सामूहिक बलात्कार और हत्या करके इस केस पर लीपा-पोती की गईl इस मामले में 1 अक्तूबर तक भी पुलिस ने कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई थीl

यह सबकुछ किया गया केवल जातिगत वैमनस्य और जलन के कारण किया गया था l महीने भर की चुप्पी के बाद एक खोजी पत्रकार ने इस घटना पर अपनी स्टोरी की, तब जाकर यह घटना पूरे देश के सामने आई और अंतरराष्ट्रीय दवाब के चलते सरकार को एक्शन लेना पड़ाl

6 सितम्बर 2008 को 41 लोगों में 36 लोगो  को चिन्हित किया गया और उनमें से भंडारा डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने 6 आरोपियों को फांसी की सजा और दो को उम्रकैद की सजा मुकर्रर कीl सबसे बड़ा झोल जब हुआ जब 16 सितम्बर 2008 को इस केस से एसी -एसटी एक्ट हटा दिया गयाl 14 जुलाई 2010 को अपील करने के बाद न्यायालय ने 6 लोगों को मौत की सजा को 25 वर्ष की सश्रम कारावास में बदल कर अपराधियों को जीवनभर जीने का तोहफा दे दियाl अपनी पत्नी, बेटी और बेटों की याद को छाती से चिपटाए भैयालाल कोर्ट में चप्पलें घिसते रहे पर न्याय नहीं मिलाl घटना के एकमात्र गवाह जो जीवित बचे और न्याय के लिए अंतिम सांस तक लड़े भैयालाल भोतमांगे ने भी पिछले साल 20 जनवरी 2017 को दम तोड़ दियाl

आज 12 साल के बाद भी ये केस कोर्ट में झूल रहाl आज भी हालात बदत्तर हैं क्योंकि हम सोये हुए हैंl हज़ारों-लाखों केस हैं, लड़ाई है, संघर्ष है...............सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष को और तेज़ करने की जरुरत हैl
इस संघर्ष के संकल्प के साथ हत्याकांड में मारे गये लोगों को अश्रुपूर्ण श्रधांजली ....

बुधवार, 1 अगस्त 2018

महान दलित लोक शाहिर अन्नाभाऊ साठे.......


आज महान लोक शाहिर अन्नाभाऊ साठे का जन्मदिवस है........
महाराष्ट्र और आसपास के राज्यों में अन्नाभाऊ साठे का नाम बच्चे-बच्चे की जुबां पर मिल जाएगाl इनका जन्म 1 अगस्त 1920 को महाराष्ट्र के सांगली जिले के वाटेगाँव में माँग नामक अछूत माने जाने वाली अनुसूचित जाति में हुआ था। अन्नाभाऊ अछूत to थे ही ऊपर से माँ-बाप बेहद गरीब थे । माँ- बाप ने स्कूल में दाख़िला तो कराया पर स्कूल के मास्टर कुलकर्णी (ब्राह्मण) गुरुजी के अत्याचारों के कारण केवल डेढ़ दिन ही स्कूल में टिक पाये और स्कूल छोड़ देना पड़ा। पैसे नहीं होने के कारण काम-धंधे की तलाश में अपने गाँव से बॉम्बे का सफर पैदल ही तय किया । बॉम्बे में वे मजदूर आंदोलनों और स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलनों से जुड़कर कम्युनिस्ट विचारधारा के संपर्क में आए तथा कम्युनिस्ट आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गएl उन्होंने अपनी कविता,कहानी और नाटकों से दलित-शोषितों को उनके अस्मिता की जुबान दीl अन्नाभाऊ ने 35 उपन्यास,12 कथासंग्रह, 10 पोवाड़े, 1 यात्रा वृतांत 14 तमाशा और 3 नाटक लिखे । उनके 8 उपन्यासों पर महाराष्ट्र में फ़िल्में भी बनी। उनकी रचनाओं का अनुवाद अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन आदि विदेशी भाषाओँ में भी हुआ और हिंदी, गुजराती, बंगाली, तमिल, मलियाली, उड़िया आदि देशी भाषाओँ में भीl वे 'इंडो-सोवियत कल्चर सोसायटी' के निमंत्रण पर रूस भी गये थेl इस यात्रा का जिक्र उन्होंने अपने यात्रा वृतांत 'माझा रशियाचा प्रवास' में किया हैl वे संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में भी सक्रिय सहभागी रहेl इस दौरान उन्होंने बेहद मार्मिक लावणी माझी मैनालिखी थी। अन्नाभाऊ साठे कम्युनिस्ट आंदोलन में थे पर वहां पर भी जातिवाद देखकर धीरे-धीरे उनका कम्युनिज्म से मोहभंग हो गया और वे अम्बेडकरवादी विचारधारा से सक्रिय रूप से जुड़ गये।
16 अगस्त 1947 को जब देश का सारा सवर्ण समाज आजादी के जश्न में सराबोर था तब कम्युनिस्टों के भारी विरोध के बावजूद उन्होनें बारिश में भीगते हुये बॉम्बे में 60 हजार लोगों की रैली निकाली और हुंकार भरी- ये आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है। क्योंकि वे समझ रहे थे कि फिलहाल केवल ब्राह्मण-सवर्ण ही आजाद हुये हैं,दलित समाज तो अब भी गुलाम है। बाबा साहेब के निधन पर दलित-शोषितों के लिए अण्णाभाऊ ने लिखा था-
                          "जग बदल घालूनी घाव-सांगुनी गेले मला भीमराव,
                           गुलामगिरिच्या चिखलात-रुतूनी  बसला एरावत,
                           अंग   झाडुनी निघ   बाहेरी-  घे   बिनीवरती  घावl"
वर्ष 1959 में अन्नाभाऊ साठे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'फकीरा' लिखी जो 1910 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने वाले मांग जाति के क्रांतिवीर ‘फकीरा’ के संघर्ष पर आधारित थी उन्होंने यह पुस्तक डा. आम्बेडकर को समर्पित की थीl अन्नाभाऊ साठे ने स्कूली अनपढ़ होते हुये भी पढ़ने-लिखने की न केवल योग्यता हासिल की बल्कि दलित क्रांति का बहुत समृद्ध साहित्य भी रचा, जो आज भी अम्बेडकरवादियों को रास्ता दिखा रहा हैl कम्युनिस्ट आंदोलन की नकली क्रांति और खोखलेपन को समझने का उनसे बेहतर कोई उदाहरण नहीं है। उन्होंने पूरा जीवन अपने लोगों के लिए संघर्ष करते हुए मुफ़लिसी में गुज़ारा और कहा जाता है वे बहुत दिनों से भूखे थे और भूख के कारण ही 18 जुलाई 1969 को उनकी मौत हो गईl कभी सुनिए अन्नाभाऊ को आपको पता लगेगा दलित संघर्ष की आवाजें कितनी बुलंद और सच्ची होती हैंl
आपके यहाँ तक पहुँचने में हजारों-लाखों बहुजन नायकों का संघर्ष हैl महान जनकवि अन्नाभाऊ साठे को कोटि-कोटि अभिनंदन.........



मंगलवार, 17 जुलाई 2018

सिनेमा में बहुजन क्रांति की गूंज

सिनेमा और साहित्य हमेशा से समकालीन समाज का आईना रहा है, जिसमें उस समय के मुद्दे अलग-अलग रूपों में कला सृजन के माध्यम से उतरते रहें हैं परंतु इनमें बहुजन समाज के मुद्दे हमेशा से ही लगभग नदारद रहें हैं। इनमें जहाँ कहीं भी दलित पात्रों को सिनेमा ने उठाया भी है तो वे पात्र बेहद कमज़ोर, लाचार, बेबस और जातिवादी भेदभाव के मारे दिखते हैं। उनमें संघर्ष या लड़ने का माद्दा नहीं दिखता। सिनेमाई इतिहास से जाति का मुद्दा ऊठाने वाली तमाम फिल्मों उठाकर देखें तो उनमें दलित नायक-नायिकाओं को हमेशा ही स्थितियों के आगे घुटने टेकते और समझौता करते दिखाया गया है, जिसका भला भी कोई गैर दलित नायक ही करता दिखता है।अधिकांशतः ऐसी फिल्मों का निर्देशन तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने किया और पात्र भी लगभग इसी पृष्ठभूमि से रहें हैं। इसलिए संवेदना से उपजा सृजन भोगा हुआ यथार्थ की बराबरी नहीं कर सका। नतीज़न इनमें जाति से जुड़ी तकलीफ़ और संघर्ष से पूरे समाज को संबोधित करने की अग्निलीक नहीं दिखाई देती।  

हाल ही में रिलीज़ हुई अनुराग बसु निर्देशित फ़िल्म मुक्काबाज़ में भी जाति की पहचान को हरिजन कहकर न केवल छुपा लिया गया बल्कि दलित पात्र को समझौते से झुका कर जातीय श्रेष्ठता को स्थापित किया गया। फ़िल्म चौरंगा में भी चातुर्वर्ण व्यवस्था को दिखाते हुए दलित नायिका( तनिष्ठा चटर्जी) और उसके परिवार को समझौता करते हुए दिखाया गया है। फिल्म लगान में एक दलित पात्र 'कचरा' दिखाया गया था जिसे पोलियो में हुई टेढ़ी उंगलियों के साथ एक गैर-दलित नायक भुवन( आमिर खान) मौका देता है। फ़िल्म आरक्षण में भी एक दलित पात्र( सैफ अली ख़ान) नज़र आता है लेकिन एक गैर दलित(अमिताभ बच्चन) ही उसका उद्धार करता है। फिल्म गुड्डू रंगीला में अरसद वारसी को दलित चरित्र के रूप में दिखाया गया है, जिसकी पहचान पूरी तरह साफ नहीं है लेकिन वो प्रतिरोध करता दिखता है। यह प्रतिरोध शुद्र-द राइजिंग में भी दिखा था लेकिन उसे एक फीचर फिल्म ही माना गया। 90 के दशक पूर्व जाति के प्रश्न को पर्दे पर केवल पीड़ित होने तक सीमित कर दिया गया था। फिल्मों के नए युग की शुरुआत के बाद भी कई और फिल्में भी आई जिनमें सब कुछ साफ दिखते हुए भी जाति की पहचान को छुपा लिया गया जिनमें हिचकी, निल बटे सन्नाटा, माँझी-दी माउंटेनमैन, शोर इन दी सिटी आदि को शामिल किया जा सकता है। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फ़िल्म मसान में ज़रूर दलित नायक को अपनी जातिगत पहचान और संघर्ष के साथ प्रस्तुत किया गया हालाँकि प्रतिरोध की गूँज वहाँ भी सुनने नहीं मिली। यानि सिनेमा जगत जाति पीड़ित को दिखाता रहा है लेकिन प्रतिरोध नहीं।

पिछले कुछ दशकों में बहुजन मूवमेंट जिस तेज़ी से उभरा है उसका प्रभाव हिंदी सिनेमा जगत में कहीं नहीं दिखता। हालाँकि क्षेत्रिय भाषायी फिल्मों जैसे मराठी, तमिल, तेलगु आदि में जरूर दलितों के प्रतिरोध को दिखाया गया है। फिल्म फंड्री, सैराट, कबाली, कुक्कुस ऐसी ही कथानक वाली फिल्में हैं। इन फिल्मों में निर्देशक, पात्र से लेकर क्रू मेंबर्स तक बहुजन पृष्ठभूमि से रहे हैं, और इन्होंने अपने लोगों के भोगे हुए यथार्थ को बेहद सच्चाई और ईमानदारी से पर्दे पर बख़ूबी उतारा है चूँकि ये खुद उसी संघर्षशील समाज का हिस्सा हैं। नागराज मंजुले द्वारा निर्देशित फ़िल्म सैराट ने क्षेत्रीय भाषा सिनेमा के सभी रिकॉर्ड्स तोड़ते हुए सबसे ज्यादा कमाई की, राष्ट्रीय पुरस्कार भी हासिल किया और महाराष्ट्र की सीमाओं से निकलकर पूरे देश तक पहुँची भी। अब जबकि बहुजन मूवमेंट अपनी पहचान, मुद्दे, संघर्ष, प्रतिनिधित्व और प्रतिकार को राजनीति और समाज के केंद्र में ले आया है तब भी सिनेमा जगत ने इस परिवर्तन को जगह देना ज़रूरी नहीं समझा।

अब तक सिनेमा से नदारद रखी गई प्रतिरोध और संघर्ष की गूँज को बेहद संजीदगी से सिनेमाई पर्दे पर उतार देने का साहस किया है निर्देशक पा.रंजिथ ने अपनी फ़िल्म 'काला' में। रजनीकांत अभिनीत फिल्म 'काला' मूल रूप से तमिल में बनी और हिंदी में डब हुई है। काला न केवल सिनेमाई इतिहास में क्रांति का उद्घोष है बल्कि बहुजन मूवमेंट में एक महान योगदान है। पहली बार रुपहले पर्दे पर बहुजन मूवमेंट को उसके प्रतीकों, प्रश्नों, प्रतिनिधित्व, प्रतिकार और प्रतिक्रांति के हर मुद्दे को संदेश के साथ स्थापित किया गया है। फ़िल्म में दलित-वंचित जातियों और अल्पसंख्यक तबकों का प्रतिनिधित्व करता हर पात्र स्वाभिमान, सम्मान और अधिकार की चेतना से लैस है। फिल्म का नायक कामगारों और ग़रीबों के अधिकारों के लिए संघर्ष करता है। इस फ़िल्म में संवादों, प्रतीकों, मूर्तियों, चित्रों और भाषा आदि से वास्तविक बहुजन भारत की उपस्थिति और उनकी शक्ति का बेबाक फिल्मांकन किया गया है। पूरा बहुजन विमर्श एक कहानी की शक्ल में 'काला' फिल्म में प्रस्तुत हुआ है।


फिल्म 'काला' के नामकरण के पीछे इस देश के बहुजनों की मूल पहचान, मूल रंग, ऐतिहासिकता, ब्लैक पैंथर मूवमेंट का संघर्ष, मेहनत का रंग और भारत सहित पूरे विश्व में आज भी होने वाला रंगभेद के विरोध का प्रतिनिधित्व करता है। एक और प्रतीक काला का अफ्रीका महाद्वीप से भी जुड़ता है। मेनस्ट्रीम में अफ्रीका को काले और पिछड़ों का प्रतीक माना गया है और अमेरीका-ब्रिटेन को गोरों और आधुनिकता का। अब तक अमरीका ही विश्व को परिवर्तन और आधुनिकता की तमीज़ सिखाता रहा है। नायिका ज़रीना(हुमा क़ुरैशी) का अमरीका/ ब्रिटेन जैसे विकसित देशों की बजाय अफ्रीका से आना और वंचित तबकों की स्थिति में अपने नजरिये से परिवर्तन की कोशिश करना। ज़रीना एक महिला है,एक मुस्लिम है और स्लम में बढ़ी लिखी है। जरीना के माध्यम से आम मुसलमान की सिनेमाई छवि जिसमें उन्हें रूढ़िवादी और पिछड़ा दिखाया जाता है उसे भी आधुनिकता से बदला गया है। वरना अब तक तो सिनेमा किसी सवर्ण हिंदू अमरीका रिटर्न(फ़िल्म स्वदेश) में ही परिवर्तन की काबलियत होती है, दिखाता आया है।

बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा दिए गए नारे "शिक्षित हो, संघर्ष करो, संगठित करो" को काला मूवी का केंद्रीय विषय बनाया गया है। पूरी मूवी में मुख्य पात्र काला जो कि दलित है सभी को अपने बच्चों को पढ़ाने और आगे बढ़ाने की सीख देते दिखता है। फिल्म में शुरू से लेकर आख़िर तक संघर्ष को बेहद सशक्त तरीक़े से दिखाया गया है। साथ ही फ़िल्म में बहुजनों समाज के संगठन की शक्ति का महत्व बताया गया है कि यदि वे एक हो जाएँ तो क्या कर सकतें हैं। 'बहुजन असहयोग आंदोलन' की सफलता के माध्यम से आज के पूरे बहुजन समाज को संबोधित करते हुए निर्णायक सन्देश और प्रेरण रचा गया है।

पहली बार एक बड़ी फिल्म बेहद सशक्त तरीके से बहुजन अस्मिता की प्रतिरोधी चेतना के साथ पर्दे पर आई है जिसमें नायक नहीं प्रतीक रूपी 'मूकनायक' देखने को मिलते हैं। प्रतीकों पर बहुत बारीकी से काम किया गया है इसलिए फ़िल्म की हर एक फ्रेम हज़ार- हज़ार बातें कहती हैंl फिल्म में मुख्य पात्र काला करिकालन की जाति सीधे ना बता उसे प्रतीकों के माध्यम से उजागर किया गया है। नायक 'काला' के पीछे बैकग्राउंड में महात्मा बुद्ध, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब आंबेडकर, इयाती थॉस, पेरियार, 'असुर' किताब,गौतम बुद्ध विहार, बोधि वृक्ष, बाबासाहेब अम्बेडकर स्पीचेस एंड वॉल्यूम की सभी किताबें और धम्म चक्र आदि पोस्टर, चित्रों और स्टिकर के माध्यम से दिखते हैं। यहाँ तक कि 'काला' की गाड़ी की प्लेट में 1931और 1956 नम्बर से राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस एवं धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस को भी स्मरण किया गया है। काला (रजनीकांत) और हरिदेव अभयंकर (नाना पाटेकर) के पात्रों के माध्यम से अधिकारों के संघर्ष का कथानक रचा गया है। हरिदेव, उच्चवर्ण के लोगों की पार्टी ‘नवभारत राष्ट्रवादी पार्टी’ का नेता है, वह खुद को रामभक्त कहता है और कहता है कि वो पावर के लिए कुछ भी कर सकता है। उसे स्लम एरिया धारावी की बेशकीमती ज़मीन में दलितों-गरीबों की उजाड़ कर बड़ी बिल्डिंग्स बनानी हैं। वह क्लीन-प्योर मुंबई और डिजिटल धारावी बनाने की बात करता है। मुंबई की धारावी रावण की लंका का प्रतीक बनी है, जिसे सरकार के स्वच्छ भारत और डिजिटल मुंबई जैसे अभियान की राह में रोड़ा दिखाया गया। फिल्म निर्देशक पा.रंजिथ ने बड़ी चालाकी से स्वच्छ भारत और डिजिटल इंडिया की याद दिलाई है। वहीं रावण का प्रतीक नायक गरीबों-वंचितों के अधिकारों के लिए नेतृत्व करते हुए दिखाया गया है। काली शर्ट, काला चश्मा, काली धोती, काली चप्पल, काला चश्मा, काली गाड़ी और काली छतरी रखे काली रंगत वाला नायक ; गोरे-गठीले और सफेद होने की पूर्व स्थापित मान्यताओं बिल्कुल विपरीत नैरेटिव खड़ा करता है। लेकिन फिल्म का विलेन इसके बिल्कुल उलट है जो सफेद कपड़ों में नजर आता है, जो सफेदपोश के पीछे छुपे अमानवीय चेहरे को प्रस्तुत करता है। लंका दहन की तरह 'काला' की धारावी को भी जलाया जाता है। रामकथा के शोर के बीच रावण वध की कहानी परदे पर दिखती है, जिसमें आर्य-अनार्य संघर्ष को बहुजन दृष्टि से भी समझाया गया है और आख़िर में प्रतिरोध में हर वंचित नागरिक रावण होकर राम का बाना ओढ़े राजनीति के समकालीन प्रतीक का सामूहिक वध करते हैं। क्लाइमेक्स में काले पर लाल और लाल पर फिर नीले रंग की स्थापना कहानी में अम्बेडकरवादी वैचारिकी को स्थापित किया गया है।

भारतीय सिनेमा के इतिहास में 'काला' पहली फ़िल्म है, जिसके किरदार जय भीम के नारे लगाते हैं। फिल्म के डॉयलॉग हक़ों की मुनादी करते हैं जैसे- "मेरी जमीन और मेरे अधिकार को ही छीनना तेरा धर्म है और ये तेरे भगवान का धर्म है तो मैं तेरे भगवान का भी नहीं छोड़ूंगा।" या समकालीन समाज में दलितों-आदिवासियों के हक़ में सवाल ऊठाते हुए कहते हैं -"वो तो कुछ कानून हम गरीबों के लिए भी बनें हैं, वरना तुम सबने हम लोगों को सात समंदर पार फेंक दिया होता"।
आंदोलन के दौरान"सवाल करेंगे तो मार देंगे" डॉयलॉग के साथ काला इस समय के सबसे जरूरी सवालों को ऊठा रहा है। इस डायलॉग से 2 अप्रैल के भारत बंद के बाद दलितों पर बढ़ती दमन की घटनाओं, उन्हें झूठे आरोपों में जेल भेजने, भीमा कोरेगाँव के आरोपियों को बरी करने और दलित एक्टिविस्टों को माओवादी बोलकर जेल में डालने, तमिलनाडु के स्टरलाइट प्रोटेस्ट में मासूमों पर गोली चलाने  की घटनाएँ सीधे-सीधे संबोधित की गई है।

धारावी के 'धोबी' घाट पर कब्जा करने आए जन राष्ट्रवादी पार्टी के नेता हरि के करीबी लोगों को प्रतिरोध कर वापस लौटाने और उसके नजदीकी आदमी विष्णु के मारे जाने के बाद कलफ़दार सफेद कपड़ा पहने हरि जब काला के घर पर आता है, काला से हाथ मिलाने के बाद अपने सफेद रूमाल से हाथ पोंछता है और काला की पत्नी सेल्वी के हाथों लाया पानी पीने से मना कर देता है। यह सीन अब तक भी भारत में दलितों के साथ अछूतों की तरह बर्ताव करने और वर्तमान राजनीति में दलित टूरिज़्म की बढ़ती प्रवत्ति के सच को बताने के लिए फिल्माया गया है। इस बात को सेल्वी के डायलॉग से बताया भी गया है कि 'सफेद कपड़े पहनने से क्या होता है... इसने हमारा पानी तक पीने से मना कर दिया।' ये बयान बढ़ती हुई दलित चेतना और सवर्णों के जातिवाद को साफ तरीक़े से उघाड़ता है। फ़िल्म का डायलॉग "अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ ऊठाएँगे-लड़ेंगे तो हमें गुंडा बोलेंगे" वर्तमान में सत्ता के ख़िलाफ़ बोलने वालों की हत्या, झूठे मुक़दमे, रासुका लगाकर जेल में ठूँसने जैसे सरकारी आतंक को दिखाता है। यह डॉयलॉग भीम आर्मी के चन्द्रशेखर रावण को अब तक जेल में जेल में रखा गया है, सहारनपुर में भीम आर्मी के सदस्य कमल वालिया की दिनदहाड़े गोलीमार कर हत्या किया जाना, सहारनपुर दंगे के पीड़ितों पर झूठे मुकदमे, भीमाकोरेगाँव में पीड़ितों-गवाहों की हत्या( 17 वर्ष की पूजा सकट) और उन्हें पुलिस प्रशासन द्वारा परेशान किया जाना, 2 अप्रैल के भारत बंद का हिस्सा बने लोगों की हत्या और दंगे के आरोप में जेल में डालना, शुजात बुख़ारी, गौरी लंकेश, गोविंद पानसरे, दाभोलकर जैसे कलम के सिपाहियों की हत्या करवाया जाना, आदिवासियों की सरकार नियोजित हत्याएँ सहित जेएनयू के बिरसा-फुले-अम्बेडकर स्टूडेंट यूनियन के सदस्यों की  विश्वविद्यालय से बर्खास्तगी आदि  घटनाओं से जुड़ता है। 


 'काला' दलित-मुस्लिम एकता को बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है। धारावी में सभी बहुजन बहुत प्यार,सम्मान और एकता के साथ रहते हैं। नायक काला अपने मुस्लिम भाइयों के साथ नमाज़ पढ़ता है, रोज़ों में इफ्तार पार्टी देता है और ईद को सब गले मिलकर खुशियां मनाते हैं। नायिका जरीना(हुमा क़ुरैशी) और नायक  काला के प्रेम की पहले की कहानियां भी दलित-मुस्लिम प्रेम को स्थापित करने की कवायद है। जहाँ दिखाया गया है कि दोनों के प्यार को परिवार ने स्वीकार कर उनकी शादी भी तय कर दी थी, और ऐन शादी के दिन तिलक आउट चोटीधारी( सवर्ण) तलवार लिए मारकाट और दंगा मचाते हैं। जिसके कारण दोनों प्रेमी हमेशा के लिए बिछड़ जाते हैं। प्रेम में सम्मान और समानता का कैनवास ग्राफ़िक्स के माध्यम से खींचा गया है। जब दलित-मुस्लिम एकता को देखकर सत्ताधारी सवर्ण उनके बीच लड़ाई करवाने और एकता तोड़ने की कोशिश करते हैं और सुवर का माँस( जो इस्लाम मे वर्जित है) मस्जिद में फेंक देते हैं और दंगे करवाना चाहता है। तब नायक काला अपने सभी दलित-मुस्लिम भाइयों को बताते हैं कि किस तरह वे बेहद प्रेम से रहते हैं और क्यों उनकी एकता तोड़ी जा रही है। 'रमेश का भाई रहीम और अब्दुल का जीजा गणेश' जैसे प्रेम-सद्भावपूर्ण रिश्तों के बीच राजनीतिक-सामाजिक सशक्तीकरण का संदेश देती है। समकालीन राजनीति और समाज की यह मांग है कि दलित- मुस्लिम बिल्कुल एकजुटता दिखायें। इसमें बहुजनों की ग़रीबी, शहरीकरण की समस्याएं, रोजगार के मुद्दे, सरकार की नाकामी, सत्ता और बिल्डर माफिया के गठजोड़, सवर्ण तंत्र की चालबाजियां, एनजीओ का खेल, सांप्रदायिक तत्वों को दिखाया गया है।

इस फ़िल्म की एक और सबसे खास बात इसमें महिला पात्रों का बेहद मजबूत, स्वाभिमानी और संघर्षशील होना है। सेल्वी(काला की पत्नी), जरीना(काला की दोस्त), तूफ़ानी(लेनिन की दोस्त) और अन्य सब फ़ायरब्रांड कैरेक्टर हैं, जिनमें व्यवस्था से लड़ जाने का माद्दा है। ये केवल चूल्हे-चौके तक सीमित नहीं बल्कि अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को बख़ूबी निभाती हैं। काला बच्चे, बूढ़े, महिलाओं किसी को भी अपने से छोटा या असमान नहीं समझता बल्कि सभी को पूरा सम्मान देता है। मूवी में जेंडर सेंसिटिविटी और स्त्री-पुरुष समानता को बहुत गंभीरता से दिखाया गया है। नॉन कॉपरेशन मूवमेंट के दौरान भी इस बात का ध्यान रखते हुए काला पुरूष सदस्यों को कहता है- "खाना बनाना सिर्फ औरतों की जिम्मेदारी नहीं है।" ये पात्र सवर्ण फेमिनिज्म के उलट "दलित फेमिनिज्म" का प्रतिनिधित्व करती हैं। वास्तव में बहुजन महिलाओं में जो संघर्ष की चेतना और बागी तेवर हैं, फ़िल्म के महिला पात्र उस क्रांतिलीक से दमकते हुए प्रस्तुत हुए हैं। जिस देश में महिलाओं को पैरों की जूती समझते हुए पैर छुआने की परंपरा प्रचलित है वहाँ काला किसी भी महिला-बच्चे से पैर छूआने जैसी घृणित परम्परा का विरोध करता है और सिखाता है कि पैर छूने जैसी परम्परा को बदलने की ज़रूरत है। यह बात फ़िल्म में तीन बार दिखाई गई है। कोर्ट में केस हारने पर हरि के सामने हाथ बढ़ाते हुए जरीना कहती है-" पैर छुआना नहीं, हाथ मिलाना सीखिये, इसी से इक्वालिटी की शुरुआत होती है।" फिल्म में किसी भी महिला पात्र ने मंगलसूत्र जैसा गुलामी का हिंदुत्व चिन्ह नहीं पहना है। 

फिल्म में हरि के नज़दीकी विष्णु की हत्या के बाद धारावी में जातीय श्रेष्ठता के दम्भ से काला के घर आए हरि जब बिना काला से इजाजत लिए वहां से निकल नहीं पाता है और बेहद गुस्से में आ जाता है। अपने जातीय अहं पर पड़ी चोट से अपमानित हरि की सिर्फ एक इच्छा है- काला उसके पांव छूकर माफी मांग ले। लेकिन काला झुकने वालों में से नहीं है। इसलिए जब काला पत्नी और बेटे की हत्या करवाने वाले हरि के घर निहत्था अकेला जाता और हरि के तलवार उठा कर पांव छूने को कहने के बाद काला मेज पर पांव चढ़ा कर हरि को चिढ़ाता है और कहता है कि 'बस इतना ही तो अंतर है'। वहीं वह हरि की पोती के पानी लाने पर पीता है( हरि ने पानी नहीं पिया था) पर अपना पांव छूने से मना करता है और सीधा रह कर नमस्ते कहने को कहता है। यह बच्चों में आत्मसम्मान को जगाने वाला विचार है। यह ब्राह्मणवादी परंपरा में गुलामी और सम्मान के नाम पर पांव छूने की सामाजिक व्यवस्था पर एक जोरदार तमाचा है। इस रूप में फ़िल्म में हिंदुत्व को त्यागकर बुद्धिष्ट संस्कारों को अपनाने की नई परिपाटी की शुरुआत की गई है।

फ़िल्म में उन बहुजनों को भी सम्बोधित किया है जो पढ़-लिख कर आरक्षण का लाभ लेकर नौकरी करते हुए शहरों में बसकर अब कुछ ठीक स्थिति में आ गए हैं पर अपनी जातीय पहचान, संघर्ष जड़ों, गांवों के लोगों और अस्मिता को नकारते हुए अपने बहुजन समाज की अवहेलना करते हैं, खुद को सवर्णों के समक्ष खड़ा कर अपने ही लोगों से घिन करते हैं, उन्हें अपने समाज के मुद्दों से कोई मतलब नहीं होता और वे हमेशा अपने लोगों से दूर सवर्णों की चकाचौंध भरी दुनिया का हिस्सा बना रहना चाहते हैं। नायक 'काला' के बच्चों द्वारा यह कथन बुलवाया गया है जब वो कहते हैं-" अब हम लोगों के पास पैसा है, नौकरी है, हम किसी नई जगह बहुत अच्छे से रह सकते हैं, हम ये जगह(धारावी) में क्यों रहें। यहाँ हालात ठीक नहीं है, इसलिए हम घर छोड़कर जाना चाहते हैं"। तब नायक काला कहता है- " यही हमारी ज़मीन, हमारी सच्चाई है। आज पैसा और नौकरी है तो अपने लोगों और संघर्ष को भूल जाओगे। जगह बदलने से हालात क्या बदल जाएंगे( यानी पहचान तो दलित की होगी) ?जो भी करना है, जो भी बदलना, जो भी ठीक करना है वो इसी ज़मीन-जड़ और अपने लोगों के बीच में रहकर बदलें।" यह डायलॉग सक्षम बहुजनों को "गिव पे बैक टू सोसाइटी"  से जोड़ता है, जिसकी बहुजन आंदोलन को बहुत जरूरत है। 

फ़िल्म 'काला' में विचारधारा के स्तर पर तर्कों के द्वारा सभी विचारधाराओं पर अंबेडकरवाद को स्थापित किया गया है। फ़िल्म में वे बहुजन जो कॉम्युनिट्स बन गए हैं उस धड़े को संबोधित करता है कि कॉम्युनिस्म से उन्हें क्यों अम्बेडकर की वैचारिकी की तरफ आना चहिए। विचारधारा के इसी संघर्ष को दिखाने के लिए नायक काला के बेटे का नाम ही लेनिन रखा गया है, जो खलनायक हरि और  व्यवस्था से अपने तरीक़े से लड़ना चाहता है लेकिन काला द्वारा विरोध किये जाने पर वह घर छोड़कर जाने के लिए तैयार हो जाता है। उस समय एक डॉयलॉग "चार क़िताब पढ़कर,क्रांति की बात करते हैं। हमें अपनी ज़मीन, जड़ों और इतिहास से जुड़कर इसके हिसाब से लड़ने की ज़रूरत है"  पूरे कॉम्युनिस्म धड़े के आह्वान करता है। चार क़िताबों को पढ़कर क्रांति की बात बाहर से आयातित कम्युनिस्ट विचारधारा पर सवालिया निशान है। लेनिन के घर छोड़कर चले जाने की बात पर उसे कोई रोकता नहीं है और कई दिनों बाद लेनिन वापस परिवार का हिस्सा बनता है। यह घटनाक्रम बताता है कि किस तरह और क्यों हमें बहुजन आंदोलन के तेज़ी लाने की जरूरत है। 

जातिय संरचना से चिपके भारतीय समाज में ब्राह्मण समुदाय यानी सवर्ण जातियों के सामने गैर-सवर्ण जातियों और खासतौर पर दलितों की जो सामाजिक हैसियत आज भी निचले दर्जे की ही मानी जाती है। इसलिए देश के ही अलग-अलग इलाकों में किसी सवर्ण के सामने बोलने, चलने, बैठने, नाम रखने, अच्छे कपड़े पहनने, मूंछ रखने, घोड़ी पर सवार होने, स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वगैरह पर जिस तरह के मनु-स्मृतीय नियमों के तहत पाबंदियां थोपी जा रही हैं वह उनके अंदर की जातिगत सड़ाँध को दिखाती है। शोषितों की शोषकों के खिलाफ अपने हक़ों के लिए बगावत पनप रही है। 'काला' उन्हीं विद्रोही चेतना को समेटती है और मनुवादियों के खिलाफ बगावत की आग की हौसला अफज़ाई करते दिखती है। सिनेमा में सोशल मीडिया को बड़ा महत्व दिया गया है। बहुजनों को काला से सीखने की जरूरत है कि वे कैसे अपने मूवमेंट को सोशल मीडिया के माध्यम से मजबूत बनाएं।


आज के दौर की फिल्मों में राष्ट्रवाद को सिनेमाई पर्दे में लपेट कर हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद परोसा जा रहा है। इसी कड़ी में 'बाजीराव मस्तानी', 'पद्मावत', 'परमाणु', 'बाहुबली', 'मोहनजोदड़ो' जैसी फिल्मों में काल्पनिक कथाओं और ऐतिहासिक आख्यानों को तोड़-मरोड़ कर ब्राह्मणवाद का महिमामण्डन दर्शकों को परोसने की क़वायद के बीच बहुजन क्रांति को पूरी ठसक और शान से उतारने का हिम्मत फ़िल्म निर्देशक पा.रंजिथ ने की है। जिस देश में हर साल रामकथा आयोजन के साथ रावण जलाया जाता है वहाँ रामायण का रूपक लेकर राम प्रतीक का सामूहिक वध दिखाना। सुर-असुर संग्राम की सच्चाई को अभिजन-बहुजन संघर्ष से जोड़ना और विद्रोह में हर एक बहुजन का रावण हो जाना ये सब बहुजन नैरेटिव को धार देनी की फ़िल्म निर्देशक की साहसभरी ईमानदार कोशिश लगती है।


फ़िल्म 'काला' जिन मुद्दों को सफलतापूर्वक सिनेमा पर उतार सकी है, उन मुद्दों से मैन स्ट्रीम सिनेमा अछूतों की तरह बर्ताव करता रहा है। जब भारत के राजनीतिक इतिहास में दलित एकजुटता का सबसे बड़ा प्रदर्शन 'भारत बंद' के रूप में सफल होता  है। जिस समय में दलितों पर अत्याचार बढ़ रहें हैं, ऊना से लेकर कोरेगांव के प्रतिरोध के स्वर पूरे बहुजन समाज की आवाज़ बन रहे हैं, जब बहुजन समाज पूरी मुखरता से अपने हक़ों की मुनादी कर रहा है, तब साहित्य और सिनेमा की ज़िम्मेदारी है कि वह समाज की आवाज़ को दर्ज करे। बहुजन क्रांति की लिहाज से 'काला' को नींव का पत्थर माना जाना चाहिए।

गुरुवार, 10 मई 2018

मौत नहीं सरकार प्रायोजित हत्या


 "सचिन वालिया की हत्या में ठाकुरों ने तो बस बंदूक का ट्रीगर दबाया, निशाना तो सरकार ने लगाया था, जिसके दम पर ठाकुर कूद रहें हैं।"
पिछले साल भी महाराणा प्रताप की जयंती पर ठाकुरों ने दंगे किये थे, शब्बीरपुर से शुरू हुआ मौत का खेल अभी रुका कहाँ हैं क्योंकि इस आग को हवा तो सरकार दे रही है। पिछले साल भी जातीय दम्भ से उपजी घृणा ने पूरे सहारनपुर में कत्लेआम मचाया था। पुलिस-प्रशासन ने ठाकुरों को पूरी छूट दी थी कि वो जो चाहें करें 3-4 घण्टे जमकर मार-काट मचाए हम कुछ नहीं कहेंगे। उन्होंने वही किया नतीज़न भयंकर दंगे हुए जिसमें जान-माल का हर नुकसान दलितों का हुआ था। उल्टा चन्द्रशेखर रावण पर रासुका लगाकर उसे जेल में डाल दिया गया। सहारनपुर दंगों में......एक भी ठाकुर को कुछ नहीं हुआ क्योंकि सिस्टम ठाकुरों के साथ था।
कल भी महाराणा प्रताप भवन पर 800 पुलिस वाले तैनात थे फिर भी पुलिस की नाक के नीचे भरे बाजार में सचिन वालिया को ठाकुरों ने पीछे से गोली मारी। और पुलिस कह रही है कि गोली मारने वाले को किसी ने नहीं देखा। इन्हें गोली मारने वाला मिलेगा भी नहीं, और अगर मिल गया तो इसे ये प्रॉपर्टी विवाद या पर्सनल दुश्मनी बता देंगे। जाँच पूरी हो जाएगी और न्याय तो सचिन के साथ ही धू-धू करके जल जाएगा।

इसके बाद हापुड़ से शुरू हुई आरएसएस की सामाजिक समरसता और सद्भावना यात्रा सहारनपुर भी पहुँचेगी किसी दलित के यहाँ बाहर से खाना मंगा कर खाएंगे, टूरिज़्म करेंगे। आपस में मिलजुलकर योगी-मोदी-शाह जैसे गिद्धों को दलित मित्र पुरस्कार या दलित रत्न जैसे पुरस्कार दे दिये जायेंगे। भारत माता की जय होगी। झूठे आरोप लगाकर भीम आर्मी से कुछ औऱ युवाओं को उठाकर जेल में बंद कर दिया जाएगा। ये सब सामने से होगा और पीछे से सचिन भाई के बाद फिर किसी दलित का नम्बर होगा। भीम आर्मी से जुड़े लोगों , जागरूक दलितों-बहुजनों पर अगला निशाना लगाया जाएगा।

ये सबकुछ इतनी आसानी और आराम से इसलिए हो जाएगा क्योंकि संसद, प्रशासन, पुलिस, मीडिया सब जगह सवर्ण दलालों के ही कब्ज़ा है। सचिन की मौत किसी ठाकुर की गोली से नहीं बल्कि सवर्ण/ब्राह्मणवादी सरकार द्वारा प्रायोजित है।

सचिन भाई तुम उन अनगिनत बहुजन योद्धाओं में से एक हो, जिनकी वजह से हम जी रहे हैं.....क्रांतिकारी जयभीम के साथ अलविदा भाई।
#SachinWalia
#BahujanWarrior

बुधवार, 9 मई 2018

"सुप्रीम कोर्ट की जाति पीड़ितों से अपेक्षाएँ और आग्रह"

भारत जैसे देश में जातिगत भेदभाव एक स्याह सच्चाई है, जिसे तथाकथित ऊँची कही जाने वाली जातियाँ इसे सामान्य मानते हुए स्वीकार्यता भी देती है और इसका पालन भी करती हैं। जहाँ जातिगत भेदभाव सबसे निर्मम रूप में मौजूद हो वहाँ 'अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम जैसे सुरक्षात्मक कानूनों की प्रासंगिकता निर्विवाद रूप से बहुत अधिक है। ताकि अस्पृश्यता एवं जातिगत विद्वेष जैसी अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध भय उत्पन्न हो सके और समाज में ऐसी अमानवीय अपराध न हो।
परन्तु एससी-एसटी एक्ट में हुए बदलाव के बाद न केवल यह भय ख़त्म हो गया है बल्कि एक तरह से अपराध करने के लिए प्रोत्साहन भी मिल गया है। किसी वारदात के हो जाने पर गिरफ्तारी से पहले जाँच एवं अग्रिम जमानत जैसी व्यवस्था ने एससी-एसटी एक्ट को सामान्य प्रक्रिया से भी बहुत कमज़ोर बना दिया है जिससे इस अधिनियम के होने के मायने ही ख़त्म हो गए हैं। ऐसे में यदि आरोपी, जाँच अधिकारी या पुलिस महकमें के मुखिया का जात भाई यानि सजातीय तथा परिचित हो तो जाँच और सबूतों को किसी भी हद तक पीड़ित के विरूद्ध प्रभावित कर सकता है। ऐसे में एक्ट में यह बदलाव इस कानून के दुरूपयोग के नए दरवाज़े खोलता है जो सीधे उच्च जातियों को ही फ़ायदा पहुँचायेंगे। इस बात की पूरी संभावना है कि यदि आरोपी व्यक्ति को अग्रिम ज़मानत दे दी जाती है तो वह पीड़ित को केस वापस लेने के लिए दबाव बनाने और सबूतों से छेड़छाड़ करने का काम कर सकता है।

किसी भी कानून का मुख्य उद्देश्य समाज को व्यवस्था,स्थायित्व और न्याय देना होता है। किसी अपराध का सिद्ध न हो पाना उसके घटित न होने की अंतिम व्याख्या नहीं होती। ऐसे कई अपराध होतें हैं जो घटित होने के बाद भी साबित नहीं हो पाते। अपराध के सिद्ध होने में कई पहलू शामिल होते हैं जैसे पीड़ित की मानसिक-शारीरिक-आर्थिक-सामाजिक स्थिति, पुलिस की सबूत जुटाने की तत्परता,अच्छा वक़ील, राज्य एजेन्सियों का सहयोग, परिवार और दोस्तों का रवैया आदि। परंतु अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध होने वाले अपराध के मामलों में ये सारी परिस्थितियां प्रतिकूल होती हैं। क्योंकि आज भी वे समाज में हाशिये पर स्थित हैं, जिनकी स्थिति जातिगत भेदभाव के कारण बेहद दयनीय है। इन वर्गों की भागीदारी संसद,कार्यपालिका, न्यायपालिका, प्रशासन, पुलिस, उद्योग, मीडिया में लगभग न के बराबर है। कमज़ोर आर्थिक और सामाजिक स्थिति होने के चलते इन पर दोहरी मार पड़ती है। इन सब स्थितियों के चलते अपराध साबित करने की परिस्थिति अत्यंत प्रतिकूल होती है। इन प्रतिकूल स्थितियों के कारण दोषसिद्धि न होने पर कानून के दुरूपयोग का टैग मिल जाता है।  इसलिए दोषसिद्धि को अंतिम पैमाना माना जाना उचित नहीं है।

एससी-एसटी एक्ट के दुरूपयोग का मामला भी कुछ चयनित स्त्रोतों के आधार पर कर लिया गया। यह तर्क भी नाकाफ़ी है कि दुरूपयोग के कुछ मामले एक्ट को बदलने की वैधानिकता प्रदान करते हैं। कुछ अपवाद कानून बदलने का आधार नहीं देते। यदि देते हैं तो फिर कितने कानून बदले जाएंगे? दहेज़ से लेकर यौन उत्पीड़न तक के मामलों में दुरूपयोग सामने आए हैं तो क्या इन कानूनों को ख़त्म या निष्प्रभावी कर दिया जाए? क्या नई परिवर्तन से किसी भी प्रकार का दुरुपयोग पीड़ित या आरोपी के संदर्भ में नहीं होगा?
सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ कुछ तथ्यों पर विचार किया जो पहली नज़र में इस कानून के दुरुपयोग की डरावनी कहानी कहते थे जबकि उन तथ्यों की सिरे से अनदेखी की गई जो जातिगत दमन और घृणा दिखाते थे। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 से 2017 के बीच दलितों के विरुद्ध हिंसा में 86% की वृद्धि हुई, हर 15 मिनिट में एक दलित के विरुद्ध अपराध किया जा रहा है। साथ ही हर दिन 7 दलित औरतों-लड़कियों के साथ बलात्कार की वारदात घट रही है। हज़ारों मामले हैं जो बहिष्कार, हत्या, बलात्कार, लूट, घर जला देने, अपंग कर देने आदि के भय में रिपोर्ट ही नहीं किये जाते। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट को भी अपेक्स कोर्ट ने अनदेखा कर दिया। क्या यह डरावने हालात इन वर्गों के संरक्षण का सवाल नहीं रखते?

कानून बनाना संसद का दायित्व है, इसलिए इस कानून में बदलाव संसद की सामूहिक चेतना पर भी सवालिया निशान लगाता है जब उसने एससी-एसटी एक्ट को जानबूझकर कठोर बनाया ताकि जातीय घृणा रोकी जा सके। इस रूप में कानून बनाने के संसद के क्षेत्राधिकार में न्याय व्यवस्था द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप किया गया है। क्योंकि जहाँ विधायन स्पष्ट हों वहाँ न्यायपालिका को दिशानिर्देश देने की आवश्यकता या उसमें परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। फ़िर "बलोथिया वाद' में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम 1989 की धारा-18 भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 और 21 उल्लंघन नहीं करती क्योंकि सीआरपीसी की धारा-438 का निषेध विशिष्ट सामाजिक स्थितियों को देखते हुए किया गया था। भारतीय सामाजिक संदर्भों और संरचना पर  विचार किये बिना परिवर्तन का निर्णय एक ख़ास वर्ग को समर्थन देता है।

साथ ही, इस कानून को भातृत्व के अनुकूल बनाने की बात कहकर सुप्रीम कोर्ट जिस वर्ग यानि एससी और एसटी समुदायों से भातृत्व बनाए रखने का आग्रह करती है वो आग्रह भी भारतीय समाज को देखते हुए विरोधाभासी है। ऐसा आग्रह एक तरह से पीड़ितों से ही अपेक्षा है कि वे समाज में समरसता और भाईचारा बनाए रखें। जबकि पीड़ित वर्ग या तो अपनी पीड़ा में चीख़ रहा है या सुन्न हो गया है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय और आग्रह पीड़ितों को कानून से ख़ारिज करने के साथ-साथ न्याय की अंतिम किरण को भी ख़त्म करता है।  

मंगलवार, 8 मई 2018

"ख़ारिज होते संवैधानिक हकों के बीच वंचित तबके"


हाल ही में मध्यप्रदेश में एक घटना सामने आई कि पुलिस कांस्टेबल की भर्ती के दौरान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों की छाती पर एससी-एसटी लिखकर उन्हें जातिगत आधार पर चिन्हित कर अपमानित किया गया। बीते दिनों ही एक दूल्हे को सवर्ण समुदाय के लोगों द्वारा घोड़ी पर बारात सिर्फ़ इसलिए नहीं ले जाने दी गई क्योंकि वो दलित समुदाय से आता था। यहाँ तक कि मध्यप्रदेश पुलिस प्रशासन को उज्जैन जिले में बाकयदा सर्कुलर जारी करना पड़ गया कि दलित दूल्हों को घोड़ी पर बारात निकालने के तीन दिन पहले स्थानीय थाने में नोटिस देना होगा। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर के भौरा गाँव में सवर्णों ने दो मासूम बच्चों पर चोरी का इल्ज़ाम लगाकर उन्हें कुँए में उल्टा लटकाया उन पर पेट्रोल डाला और उनके प्राइवेट पार्ट्स ब्लेड से काट कर दिये। चंद्रशेखर रावण पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की अवधि 3 महीने और बढ़ाई गई। एक बार भी बेल पर कोई सुनवाई नहीं की गई। शाहजहांपुर के पिलखाना गांव में 15 वर्षीय दलित किशोरी को छेड़छाड़ का विरोध करने पर छत से फेंक दिया गया। उत्तरप्रदेश के बदायूं में ठाकुरों ने एक दलित बुजुर्ग व्यक्ति को मजदूरी करने से मना करने पर यह कहते हुए गांव की चौपाल पर बांधकर बेरहमी से मारपीट की,मूँछे ऊखाड़ी और पेशाब पिलाई कि "इनका है कौन, सरकार हमारी है"। 1 जनवरी 2018 को भीमाकोरेगाँव में हिंदू संगठनों द्वारा किये गए दंगों की मुख्य गवाह पूजा सकट की हत्या कर दी गई साथ ही उसके भाई और पिता को झूठे मुकदमों में जेल भेज दिया गया।
ऐसी एक-दो घटनाएं नहीं बल्कि हज़ारों घटनाएं हैं जिनमें कुछ रिपोर्ट की गई तो कुछ पर रिपोर्ट दर्ज ही नहीं की गई। 20 जनवरी 2018 के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद से तो ऐसी घटनाएँ और भी ज्यादा तेज़ी से बढ़ी हैं। ज़ाहिर है सवर्ण वर्ग को यह विश्वास है कि ऐसे कुकृत्य करने पर भी उन्हें कोई नुकसान या क़ानूनी डंडे का सामना नहीं करना है। जब एकतरफा तौर पर विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही वंचित तबकों के हकों को मारने पर आ जाएं तो न्याय की उम्मीद आख़िर किससे हो?
जहाँ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को न्यूनतम मानवाधिकारों से भी वंचित किया जाता हो, जहाँ जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाना सामाजिक गौरव का विषय हो, जहाँ वंचित वर्ग बुनियादी अधिकारों और सुविधाओं से भी महरुम हो वहाँ उनकी सुरक्षा और संरक्षण करने की बजाय उनके संरक्षण के लिए बनाए गए कानूनों को कमज़ोर किया जाना संदेहास्पद है। यह निर्णय उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन है। कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है जबकि यह भूमिका अब सुप्रीम कोर्ट निभा रहा है। न्याययिक अतिसक्रियता से एक कदम आगे बढ़कर कोर्ट लोक अधिकारों के निर्णय भी लेने लगा है। इसलिए केवल 4 महीनों के बेहद कम समय में व्यापक जनसमूह को प्रभावित करने वाला निर्णय ले लिया गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989,2015 का दुरुपयोग होने की दलील पर इस संरक्षण कानून को कमज़ोर कर देना न्यायिक व्यवस्था और सरकार की नीयत पर सवाल उठाता है। सुप्रीम कोर्ट को सिर्फ़ 4 महीने लगे यह निर्धारित करने में कई इस एक्ट का दुरूपयोग हो रहा है। जबकि इस मामले में कोई नोटिस नहीं लिया गया कि कितने मामलों में इस एक्ट के तहत सज़ा मुक़र्रर हुई है? इस कानून में तब्दीली का कोई ठोस आधार ना ही सुप्रीम कोर्ट के पास है और ना ही सरकारी वकीलों ने एक्ट के पक्ष में कोई दलील पेश की।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2016 की रिपोर्ट में भी यह तथ्य स्वीकार किया गया था कि पिछले 4 वर्षों में दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ अपराधों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। वहीं इस रिपोर्ट में इस तथ्य को भी स्वीकार किया गया कि  ऐसे मामलों में सज़ा होने की दर बेहद कम है। अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और मानव अधिकार आयोग तथा गैर सरकारी सर्वेक्षणों की तमाम रिपोर्ट्स में इस स्वीकार्य तथ्य कि दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ अपराध बढ़ें हैं फिर भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसा निर्णय लिया जाना वंचित तबकों को हाशिये पर धकेल देने की मंशा से लिया गया लगता है। रिपोर्ट्स से कम से कम एक बात साफ है कि एससी-एसटी एक्ट का अब तक सही से उपयोग ही नहीं हो सका है इसलिए ऐसे अपराध कम होने की बजाय बढ़ें हैं। 
20 जनवरी को हुए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुरूप नई व्यवस्था के अनुसार अपराध होने पर भी एससी-एसटी एक्ट के तहत पिछले तीन महीने में मामले दर्ज नहीं हुए, क्योंकि जाँच अधिकारी सहित सबूतों को तोड़ने-मरोड़ने के साथ जाँच प्रभावित करने की शक्ति शोषिक वर्ग/सवर्ण वर्ग के पास ही आ गई। इसी शक्ति के चलते 2 अप्रैल को हुए भारत बंद के बाद हज़ारों दलितों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें जेल में ठूँस दिया गया। बंद के दौरान मारे जाने वाले वर्गों की जान-माल को हुई नुकसान की भरपाई पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया। इस नए परिदृश्य में जातिगत विद्वेष को कानून का जामा पहनाकर दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ प्रयोग करने की नई परम्परा विकसित हो गई है।
वंचितों के ख़िलाफ़ खड़ी सरकार को न ही उनके हकों की चिंता है और ना ही उन पर बढ़ रहे अत्याचारों की। सरकार केवल दिखा रही है कि वो वंचित तबकों की हितैषी है, इसके उलट वो लगातार ऐसे निर्णय ले रही है जो इन तबकों को कदम-दर-कदम पीछे धकेल रही है। इसलिए अध्यादेश, संसद विशेष सत्र और पुनर्विचार याचिका जैसे औजारों के बाद भी इस पूरे मामले में सरकार की चुप्पी और सुप्रीम कोर्ट की हीलाहवाली मिलीभगत से जारी है। जब सरकार ही शोषण संरचना में बदल गई है तो संविधान और उसके होने के मायने वंचित तबकों के लिए स्याह अँधेरे के समान है। 

सोमवार, 3 जुलाई 2017

कलमुंही से चमरिया कहलाने तक........मेरा काला रंग बोलता है

वैसे तो लड़कियों के इनबॉक्स में रोज़ तमाम तरह के मैसेज आतें हैं, पर बीते दिनों कुछ लड़कियों के जो मैसेज आए उन्होनें मुझे लिखने पर मजबूर कर दिया। पहाड़ों पर घुमक्कड़ी की कई फ़ोटो के अपलोड के दौरान बहुत से कॉमेंट और मैसेज मिले, लेकिन मेरी लड़की दोस्तों ने जो लिखा वो लगभग कई बहुजन लड़कियों के अतीत-वर्तमान और रोज़मर्रा से जुड़ी प्रेक्टिसेस, उनके सपनों की ऊंचाइयों, समाज की  खाइयों, गढ़ रहे व्यक्तित्व, बनते-बिगड़ते विश्वास-आत्मविश्वास की बात है।
एक लड़की ने लिखा है कि मैं आपकी ही तरह साँवली हूँ, बचपन से लेकर आज तक भी हमेशा सबने इग्नोर ही किया, मेरे साँवले रंग के पीछे मेरी तमाम योग्यतायें फीकी ही मानी जाती रही है, मैं खुद भी सबकी सुन-सुन कर इतनी दब्बू हो गई हूँ कि मान ही लिया है कि मैं सुंदर नहीं हूं इसलिए ही फ़ेसबुक पर भी कभी अपनी फ़ोटो लगाने की हिम्मत नहीं कर पाई। पर आपको देखकर एक नया हौसला मिला है, आप साँवले होते हुए भी कितना स्मार्टली-बोल्डली ख़ुद को कैरी करती हैं, आपके कॉन्फिडेंस की क़ायल हूँ मैं। आपको देखकर एक नया आत्मविश्वास मिला कि खूबसूरती गोरी चमड़ी की मोहताज़ नहीं। अब मैं भी अपने काले रंग को लेकर हीन नहीं महसूस करूँगी।
दूसरा मैसेज एक और लड़की ने किया है कि दीदी मेरा रंग भी आपकी तरह काला है, हम तीन बहनें हैं और सभी का रंग साँवला ही है। काले रंग वज़ह से हर जगह लोग नाक-मुँह सिकोड़ते हैं। और दलित हूँ लोग रंग देखकर ही अंदाजा लगा लेते हैं। मेरी दीदी की शादी में बहुत मुश्किल आ रही है, सिर्फ़ रंग की वज़ह से बहुत दहेज़ मांग रहें हैं लड़के वाले जबकि मेरी दीदी गवर्मेंट जॉब में है। मैं जानती हूँ मेरे और मेरी छोटी बहन के साथ भी यही होगा। पर मैं ऐसे नहीं चाहती, मुझे मंजूर नहीं कि लोग मुझे मेरे रंग से नापें। आपको फ़ेसबुक पर बहुत दिनों से पढ़ रही हूँ, आपसे हिम्मत मिलती है, आपमें बहुत कॉन्फिडेंस है, मैं भी ऐसे ही बनना चाहती हूँ।
अगला मैसेज है जो मराठी में है,जिसका हिन्दी अनुवाद लिख रही हूँ। मैम आप बहुत अच्छा लिखती हो, मेरे पापा को मैंने ही बताया था कि अपने समाज की ही है यह लड़की। पापा स्मार्ट फोन नहीं चला पाते हैं पर हमेशा आप जो भी लिखती हो, मुझसे पढ़वाते हैं। मैंने आपके मनाली टूर की फ़ोटो भी दिखाई है घर में सभी को। आपकी वजह से मुझे भी कॉलेज से जा रहे ट्रिप पर माथेरान जाने की परमिशन मिल गई है। इसलिए आपको बड़ा वाला थेंक्स। आपसे ज़िंदगी जीना सीख रही हूं।
एक और मैसेज मिला जो एक शादीशुदा लड़की का है, जो लिखती है कि मेरा सपना था कि पूरी दुनिया देखूँ, घूमना चाहती थी, पढ़ना चाहती थी पर बारहवीं के तुरंत बाद घरवालों के दबाव में शादी करनी पड़ी, मैं अपने सपने जी ही नहीं पाई, अब बस हॉउस वाइफ हूँ घर, बच्चे और पति बस। काश! कि पैसे होते तो मैं भी आपकी तरह पढ़ पाती, नौकरी करती और पूरी दुनिया घूम पाती। आपको इस तरह घूमते देख रही हूँ तो ऐसे लग रहा है कि हम साथ-साथ घूम रहें हैं। आप पूरी दुनिया घूमना, आपके पीछे-पीछे ही सही मेरे सपने भी पूरे हो जाएंगे।
ये मैसेज चार अलग-अलग लड़कियों के थे, नाम डिस्क्लोज नहीं कर रही हूँ। ये सभी बहुजन लड़कियाँ ही हैं, ये चार मैसेज चार परिस्थितियों को आपके सामने रखतें हैं। इनबॉक्स में जवाब तो दे चुकी हूँ पर पोस्ट लिखा आप सभी के लिए। काला होना क्या होता है? दलित होना क्या होता है? लड़की होना क्या होता है? और इन सब बातों का एक साथ होने के क्या मायने हैं जानती हूं मैं। बचपन से लेकर अब तक भी भुगता और भुगत रही हूँ बहुत कुछ। इस दुनिया का सबसे वर्स्ट कॉम्बिनेशन है काली दलित लड़की होना। मैंने बचपन से ना केवल जातिवाद का दंश झेला है बल्कि अपने काले रंग के साथ लगातार रंग भेद भी झेल ही रही हूँ। बचपन से ही हमारे आसपास के लोग काले रंग को लेकर इतना हीन महसूस करा देतें हैं कि हम खुद को बदसूरत मान ही लेते हैं। मेरे साथ भी यही मामला था। लोग मेरा रंग देख कर बड़ी आसानी से मुझे नीच जात की हूँ "रंग से जाति पता लगाओ प्रतियोगिता" से जान लेते थे। बचपन में नवरात्रों में कन्या भोजन में खीर-पुड़ियाँ खिलाने के लिए लोग बुलाते तो रंग देखकर ही; मैं और मेरी जैसी काली लड़कियाँ पहले ही बाहर रोक दी जाती। रंग से नीच जात पहचानना बड़ा आसान सा फंडा है हमारे सो कॉल्ड महान देश में। फिर बाहर ही दोना-पत्तल में खीर-पूड़ी मिलती जो उस वक़्त घोर ग़रीबी में मेरे लिये बहुत बड़ी बात थी, फ़िर भले ही वो दो हाथ दूर से फेंक कर दी जाती रही हो। खैर जो दलित लड़कियाँ गोरी होती हैं, उनके साथ भी बड़ा बुरा व्यवहार होता है। लोग उनकी जात गोरे रंग की वजह से पहचान नहीं पाते हैं और फिर गोरी दलित लड़कियों को बोलते हैं कि जरूर उनकी माँ किसी सवर्ण के साथ सोई होगी। पर मैं तो काली हूँ इसलिए सीधे-सीधे पहचानी जाती रही हूँ।
बचपन में मैं भी पहनना चाहती थी चटख लाल रंग की फ़्रॉक और बनना चाहती थी लालपरी। बहुत मन होता था कि काश! डार्क नीले रंग के कपड़े पहन पाऊं पर मम्मी-पापा मार-पीट कर वही सफ़ेद, हल्का ग़ुलाबी, हल्का पीला रंग घुमा-फिराकर दिला देते थे। कॉलेज आने तक भी मुझमें कॉन्फिडेंस नहीं था कि डार्क या पसंद के रंग पहन पाऊं। क्योंकि तब तक काले रंग, नीच जात की लड़की होने से जुड़े तमाम भेदभाव को मैं नीचे सिर झुका कर स्वीकार की हुई थी।स्कूल-कॉलेज में यही एक मात्र यूएसपी थी कि पढ़ने में अच्छी थी और सरकारी स्कूल में अंधों में काना राजा टाइप हालात थे। चाहते हुए भी कभी स्कूल में मैडम ने किसी डाँस या नाटक में भाग नहीं लेने दिया क्योंकि उसमें सुंदर मतलब गोरी लड़कियां ही चलती थी। मैं कभी स्कूल में नाच ही नहीं पाई और ना ही कभी मुख्य अतिथियों का स्वागत करने मिला काले होने की वजह से।
बहुत छोटे से गाँव से दिल्ली तक के सफ़र में वो तमाम दिक़्क़तों से लड़ा है, अपने-परायों से जूझा है इस कॉन्फिडेंस तक आने में। पूरे समय खुद को छुपाती-बचाती नज़रें नीची रखी हुई हीनभावना से ग्रस्त दब्बू दीपाली से आज की दीपाली का सफ़र में बहुत कुछ झेल कर संघर्ष करके सीखा, बुना, गुना, पचाया और तचाया है। ये सब बातें इसलिए लिख रही हूँ दोस्तों क्योंकि ये सब तमाम लड़कियों/लड़कों के संघर्ष हैं अपनी-अपनी तरह के। बहुजनों के लिए समाज में ऐसी परिस्थियां या प्रिविलेज नहीं हैं कि उन्हें ज़िंदगी की ज़मीन उर्वर मिले। और मैं कोई विशेष नहीं हूँ हाँ ख़ुद को बेहतर इंसान बनाने की कोशिश लगातार कर रही हूँ।
रंग भेद के साथ जातिभेद का डबल टॉर्चर और लिंगभेद की वर्स्टनेस के साथ उनसे जुड़ी तमाम मुश्किलों से लड़कर आज वाला आत्मविश्वास ला पाई हूँ। बाबासाहेब का शुक्रिया कहने के लिए शब्द नहीं बचते मेरे पास कि कुछ भी कह पाऊँ। अगर पढ़-लिख नहीं पाती तो शायद ये दीपाली भी नहीं होती। तो मेरे सभी बहुजन दोस्तों ख़ूब पढ़िए, लड़िए हम लोगों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है और पाने के लिए पूरी दुनिया है।

#i_am_because_he_was

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