बुधवार, 21 जून 2017

दायरे से पार

"क्या तुमने कभी कुर्सी खरीदी है?---हाँ।
तो क्या तुमने जाते ही पहली कुर्सी पसंद कर ली और खरीद ली??-----नहीं ना।
कोई कुर्सी दिखने में सुंदर होती है पर बैठने में अच्छी नहीं, कोई बैठने में अच्छी होती है पर दिखने में नहीं, कोई नर्म तो, कोई सख़्त सी लगती है ; किसी में कुछ अच्छा लगता है, तो कुछ बुरा। कितनी कुर्सियाँ देखते हैं हम अपने लिए एक परफेक्ट और सुपर फाइन कुर्सी खरीदने से पहले...........फिर अपना लाइफ पार्टनर चूज़ करने से पहले ऑप्शन देखने में क्या प्रॉब्लम है? सारे ऑप्शन चेक करके एक सुपरफाइन पर्सन सेलेक्ट करना चाहिए।"

क्या वाक़ई अपने लिए किसी सुपर फाइन पर्सन की तलाश की प्रोसेस में रिश्ते बनाना और तोड़ कर अलग हो जाना; ठीक वैसे ही है जैसे कुर्सी का सिलेक्शन ??

हमारे समाज में यह सुपरफाइन सिलेक्शन की बाकायदा लंबी परंपरा चली आ रही है। शादी के लिए लड़की-लड़का देखने के नाम पर सुपरफाइन पर्सन को सेलेक्ट करने के लिए पुरे कुनबे के सभी लोग खा-पीकर ; डकार लेकर हाथ झाड़ते हुए रिश्ते के लिए मना करते हुए बिलकुल भी नहीं झिझकते। बल्कि हर रिजेक्शन के साथ समाज में लड़की की विवाह वैल्यू कम होने के साथ-साथ उसका जीवन दूभर होता जाता है। गौरतलब है कि लड़की (गौरवर्ण, सुंदर, साँचे में ढला शरीर, सुशील, संस्कारी,पढ़ी-लिखी, गृहकार्य में दक्ष, टीचर की जॉब में हो तो और भी बढ़िया, दहेज़ लेकर आये) और लड़का (अच्छा कमाता हो, बड़ा सा घर हो, आर्थिक सक्षमता सबसे इम्पोर्टेन्ट पर सूरत अधिक महत्वपूर्ण नहीं, साथ ही गुड लुकिंग और सरकारी सेवारत को एक्स्ट्रा अंक दिए जायेंगे) ढूंढने का यह कार्यक्रम तब जबकि मामला अपनी ही जाति-धर्म और बिरादरी का हो। देखने वाली बात यह है कि समाज में सुपर फाइन पर्सन होने की समाज उद्घोषित और संचालित परिभाषा में दोनों ही पक्ष के लिये आर्थिक तत्व प्रमुख भूमिका निभाता है। क्योंकि बाकी के गुण तत्वों में धन को महत्ता देते हुए सुविधानुसार उन्नीस-बीस किया जा सकता है। विभिन्न जाति-धर्मों के परिचय सम्मेलनों में तो सामूहिक स्तर पर सिलेक्शन और रिजेक्शन का सार्वजानिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, जिसमें लड़के- लड़कियाँ उत्पादों की भांति मंच पर उपस्थित होते हैं; और बाज़ार में सामान की तरह उन्हें पसंद-नापसंद किया जाता है। टेक्नॉलाजी प्रयोग बढ़ने के साथ-साथ आजकल कई तरह की मेट्रीमोनियल साइट भी इस तरह की सुविधा उपलब्ध कराती हैं। सुपरफाइन पर्सन ढूंढने के लिए उपस्थित विकल्पों में से चयन या कोई और बेहतर खोज लेने की उत्कंठा में लोग कई रिजेक्शन करते हैं। स्थापित मान्यताओं को निभाते समय लोग यह भी नहीं सोचते कि इस रिजेक्शन का रिजेक्टेड पर्सन पर क्या फर्क पड़ेगा। क्या किसी ऑब्जेक्ट की तरह इंसान को रिजेक्ट कर दिए जाना उसे एक निर्जीव संरचना मान लेना नहीं है ? रिजेक्शन और सिलेक्शन की इस प्रोसेस में लड़कियाँ और उनके घरवाले कितनी मानसिक और सामाजिक तकलीफों से गुज़रतें हैं। और किसी लड़की की सगाई होकर टूट जाना या शादी टूटना कितना बड़ा ठप्पा या कलंक होता है जबकि समाज में ऐसी टूटन का लड़कों के लिए कोई टैबू नहीं बना हुआ है। यह चिंता और विचार का विषय है।

सेम प्रोसेस आजकल हम यंग्सटर्स में अपने लिए गर्लफ्रेंड-बॉयफ़्रेंड को सेलेक्ट करने और रिजेक्ट करने के लिए भी होती है। अधिकतर देखने में आता है कि लड़के प्यार के नाम पर सेक्सुअल रिलेशन्स बनाने के बाद परिवार को बीच में लाकर अलग हो जाते हैं इसमें सबसे ज्यादा नुकसान लड़कियों का ऊठाना पड़ता है, ना केवल शारीरिक और भावनात्मक स्तर पर बल्कि सामाजिक,आर्थिक, बौद्धिक स्तर पर भी। कई लड़कियाँ इस तरह के शोषण का शिकार होती हैं, बर्बाद होती हैं और यहाँ तक कि जान से भी हाथ धोना पड़ जाता है। इस तरह के रिजेक्शन कई बार लोगों की पूरी ज़िन्दगी पर भी भारी पड़ जाते हैं। नई पीढ़ी में होने वाले ये ब्रेकअप्स भी एक तरह से रिजेक्शन ही है। बहुत सपनों और उम्मीदों से बना रिश्ता परिवार तक जाने और शादी के अंजाम से पहले ही दम तोड़ जाता है। परिवार के पास पहुँचने पर जाति-धर्म-बिरादरी-स्टेटस का पंगा तो अलग से होना ही होता है। क्योंकि जीवनसाथी खुद की इच्छा से चुनने को लेकर समाज अभी पूरी तरह ना उदार है और ना ही परिपक्व। मैं यहाँ दो लोगों के बीच के रिश्ते और ब्रेकअप की बात कर रही हूँ। ऐसे नहीं है कि लड़के इस तरह की रिजेक्शन का सामना नहीं करते। हाँ लड़कियों की तुलना में जरूर कम नुकसान होता है उनका। क्योंकि समाज लड़कों के लिए इतना कठोर नहीं है।
यह सच है कि चूँकि रिश्ता दो लोगों से शुरू होता है तो इसलिये इसमें दो लोगों के बीच की अंडरस्टैंडिंग, सोच-समझ, आदतें, जरूरतें और सहूलियतें ज्यादा मायने रखती हैं। इंसान को कुर्सी या किसी और निर्जीव के समकक्ष रखकर रिजेक्शन को जस्टीफ़ाइड करना कितना बचकाना सा तर्क है। ज्यादा बेहतर है कि हम अपनी पसंद के अनुरूप ही रिश्ता बनाएं ना कि प्रोडेक्ट की तरह कोई ट्रॉयल लेने के लिए। किसी की भावनाओं से खेलना, अपनी सुविधानुसार हर तरह से यूज़ करना और परिवार का बहाना बनाकर अलग हो जाना किसी भी रूप में जस्टीफ़ाइड नहीं हो सकता फिर चाहे ऐसा कोई लड़का करे या लड़की।
किसी भी इंसान को रिजेक्शन हमेशा तकलीफ देता है। अधिकतर देखने में आता है कि इस वजह से लोग कई बार अवसाद और मानसिक तनाव का शिकार हो जाते हैं। रिजेक्शन से उपजे मानसिक और भावनात्मक आघात की तकलीफ़ इंसान को ज़िन्दगी और मानवीय संबंधों के प्रति नकारात्मक बना देती है। सुपर फाइन कुर्सी के सिलेक्शन और इंसान के सिलेक्शन में कोई भी तुलना सम्भव ही नहीं है। यह उदाहरण ह्यूमन को ऑब्जेक्टफाइड करता है।
ऐसी भावनात्मक और ब्रेकअप पीड़ा से बचने के लिए बेहतर है कि हम अपने व्यक्तित्व की मूल प्रवृति कि हम ब्रेन ओरियेंटेड व्यक्तित्व (दिमाग से चलने और जीने वाले) हैं या हार्ट ओरिएंटेड व्यक्तित्व (दिल से चलने और जीने वाले) को पहचान कर की ही किसी रिश्ते में जायें। क्योंकि एक व्यक्ति दिल और दूसरा व्यक्ति दिमाग ओरिएंटेड हो तो हार्ट ओरिएंटेड व्यक्ति भावुक और अधिक संवेदनशील होने की वजह से बहुत ज्यादा तकलीफ में रहेगा और दूसरा उसे हर तरह से डोमिनेट करेगा जबकि दो हार्ट ओरिएंटेड या दो ब्रेन ओरिएंटेड लोगों का रिश्ता ज्यादा बेहतर है और......इसे समय के साथ और भी बेहतर बनाया जा सकता है। यदि हम सभी अपनी मूल प्रवृति के अनुरूप लोगों से जुड़ेंगे और संबंधों का निर्वाह करेंगें तो जीवन में टूटन और बिखराव की त्रासदी की सामना करने से बच सकेंगें। जीवनसाथी के चयन की स्वतंत्रता प्राप्त होना ही महत्वपूर्ण नहीं ही बल्कि सही हमसफ़र के चयन में अपने मूल स्वभाव को पहचान कर उसके अनुरूप चयन करना भी उतना ही अधिक महत्वपूर्ण है। किसी संबंध की शुरूआत यदि परिवार से इतर दो लोगों से ही हो रही है तो व्यक्ति को पहचानने और उसे परखने के बाद ही उसे सहमति देना सही है। इससे दो लोग और उनका परिवार किसी अप्रिय स्थिति में जाने से बचेंगे और साथ ही एक सही जीवनसाथी भी पा सकेंगे। दो सममूल प्रवृति वाले लोगों के जुड़ने-मिलने से ना केवल संबंधों के टूटन-बिखराव काफी हद तक कम होंगे बल्कि मानसिक संतुष्टि का स्तर भी बढ़ेगा।

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