गुरुवार, 10 मई 2018

मौत नहीं सरकार प्रायोजित हत्या


 "सचिन वालिया की हत्या में ठाकुरों ने तो बस बंदूक का ट्रीगर दबाया, निशाना तो सरकार ने लगाया था, जिसके दम पर ठाकुर कूद रहें हैं।"
पिछले साल भी महाराणा प्रताप की जयंती पर ठाकुरों ने दंगे किये थे, शब्बीरपुर से शुरू हुआ मौत का खेल अभी रुका कहाँ हैं क्योंकि इस आग को हवा तो सरकार दे रही है। पिछले साल भी जातीय दम्भ से उपजी घृणा ने पूरे सहारनपुर में कत्लेआम मचाया था। पुलिस-प्रशासन ने ठाकुरों को पूरी छूट दी थी कि वो जो चाहें करें 3-4 घण्टे जमकर मार-काट मचाए हम कुछ नहीं कहेंगे। उन्होंने वही किया नतीज़न भयंकर दंगे हुए जिसमें जान-माल का हर नुकसान दलितों का हुआ था। उल्टा चन्द्रशेखर रावण पर रासुका लगाकर उसे जेल में डाल दिया गया। सहारनपुर दंगों में......एक भी ठाकुर को कुछ नहीं हुआ क्योंकि सिस्टम ठाकुरों के साथ था।
कल भी महाराणा प्रताप भवन पर 800 पुलिस वाले तैनात थे फिर भी पुलिस की नाक के नीचे भरे बाजार में सचिन वालिया को ठाकुरों ने पीछे से गोली मारी। और पुलिस कह रही है कि गोली मारने वाले को किसी ने नहीं देखा। इन्हें गोली मारने वाला मिलेगा भी नहीं, और अगर मिल गया तो इसे ये प्रॉपर्टी विवाद या पर्सनल दुश्मनी बता देंगे। जाँच पूरी हो जाएगी और न्याय तो सचिन के साथ ही धू-धू करके जल जाएगा।

इसके बाद हापुड़ से शुरू हुई आरएसएस की सामाजिक समरसता और सद्भावना यात्रा सहारनपुर भी पहुँचेगी किसी दलित के यहाँ बाहर से खाना मंगा कर खाएंगे, टूरिज़्म करेंगे। आपस में मिलजुलकर योगी-मोदी-शाह जैसे गिद्धों को दलित मित्र पुरस्कार या दलित रत्न जैसे पुरस्कार दे दिये जायेंगे। भारत माता की जय होगी। झूठे आरोप लगाकर भीम आर्मी से कुछ औऱ युवाओं को उठाकर जेल में बंद कर दिया जाएगा। ये सब सामने से होगा और पीछे से सचिन भाई के बाद फिर किसी दलित का नम्बर होगा। भीम आर्मी से जुड़े लोगों , जागरूक दलितों-बहुजनों पर अगला निशाना लगाया जाएगा।

ये सबकुछ इतनी आसानी और आराम से इसलिए हो जाएगा क्योंकि संसद, प्रशासन, पुलिस, मीडिया सब जगह सवर्ण दलालों के ही कब्ज़ा है। सचिन की मौत किसी ठाकुर की गोली से नहीं बल्कि सवर्ण/ब्राह्मणवादी सरकार द्वारा प्रायोजित है।

सचिन भाई तुम उन अनगिनत बहुजन योद्धाओं में से एक हो, जिनकी वजह से हम जी रहे हैं.....क्रांतिकारी जयभीम के साथ अलविदा भाई।
#SachinWalia
#BahujanWarrior

बुधवार, 9 मई 2018

"सुप्रीम कोर्ट की जाति पीड़ितों से अपेक्षाएँ और आग्रह"

भारत जैसे देश में जातिगत भेदभाव एक स्याह सच्चाई है, जिसे तथाकथित ऊँची कही जाने वाली जातियाँ इसे सामान्य मानते हुए स्वीकार्यता भी देती है और इसका पालन भी करती हैं। जहाँ जातिगत भेदभाव सबसे निर्मम रूप में मौजूद हो वहाँ 'अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम जैसे सुरक्षात्मक कानूनों की प्रासंगिकता निर्विवाद रूप से बहुत अधिक है। ताकि अस्पृश्यता एवं जातिगत विद्वेष जैसी अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध भय उत्पन्न हो सके और समाज में ऐसी अमानवीय अपराध न हो।
परन्तु एससी-एसटी एक्ट में हुए बदलाव के बाद न केवल यह भय ख़त्म हो गया है बल्कि एक तरह से अपराध करने के लिए प्रोत्साहन भी मिल गया है। किसी वारदात के हो जाने पर गिरफ्तारी से पहले जाँच एवं अग्रिम जमानत जैसी व्यवस्था ने एससी-एसटी एक्ट को सामान्य प्रक्रिया से भी बहुत कमज़ोर बना दिया है जिससे इस अधिनियम के होने के मायने ही ख़त्म हो गए हैं। ऐसे में यदि आरोपी, जाँच अधिकारी या पुलिस महकमें के मुखिया का जात भाई यानि सजातीय तथा परिचित हो तो जाँच और सबूतों को किसी भी हद तक पीड़ित के विरूद्ध प्रभावित कर सकता है। ऐसे में एक्ट में यह बदलाव इस कानून के दुरूपयोग के नए दरवाज़े खोलता है जो सीधे उच्च जातियों को ही फ़ायदा पहुँचायेंगे। इस बात की पूरी संभावना है कि यदि आरोपी व्यक्ति को अग्रिम ज़मानत दे दी जाती है तो वह पीड़ित को केस वापस लेने के लिए दबाव बनाने और सबूतों से छेड़छाड़ करने का काम कर सकता है।

किसी भी कानून का मुख्य उद्देश्य समाज को व्यवस्था,स्थायित्व और न्याय देना होता है। किसी अपराध का सिद्ध न हो पाना उसके घटित न होने की अंतिम व्याख्या नहीं होती। ऐसे कई अपराध होतें हैं जो घटित होने के बाद भी साबित नहीं हो पाते। अपराध के सिद्ध होने में कई पहलू शामिल होते हैं जैसे पीड़ित की मानसिक-शारीरिक-आर्थिक-सामाजिक स्थिति, पुलिस की सबूत जुटाने की तत्परता,अच्छा वक़ील, राज्य एजेन्सियों का सहयोग, परिवार और दोस्तों का रवैया आदि। परंतु अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध होने वाले अपराध के मामलों में ये सारी परिस्थितियां प्रतिकूल होती हैं। क्योंकि आज भी वे समाज में हाशिये पर स्थित हैं, जिनकी स्थिति जातिगत भेदभाव के कारण बेहद दयनीय है। इन वर्गों की भागीदारी संसद,कार्यपालिका, न्यायपालिका, प्रशासन, पुलिस, उद्योग, मीडिया में लगभग न के बराबर है। कमज़ोर आर्थिक और सामाजिक स्थिति होने के चलते इन पर दोहरी मार पड़ती है। इन सब स्थितियों के चलते अपराध साबित करने की परिस्थिति अत्यंत प्रतिकूल होती है। इन प्रतिकूल स्थितियों के कारण दोषसिद्धि न होने पर कानून के दुरूपयोग का टैग मिल जाता है।  इसलिए दोषसिद्धि को अंतिम पैमाना माना जाना उचित नहीं है।

एससी-एसटी एक्ट के दुरूपयोग का मामला भी कुछ चयनित स्त्रोतों के आधार पर कर लिया गया। यह तर्क भी नाकाफ़ी है कि दुरूपयोग के कुछ मामले एक्ट को बदलने की वैधानिकता प्रदान करते हैं। कुछ अपवाद कानून बदलने का आधार नहीं देते। यदि देते हैं तो फिर कितने कानून बदले जाएंगे? दहेज़ से लेकर यौन उत्पीड़न तक के मामलों में दुरूपयोग सामने आए हैं तो क्या इन कानूनों को ख़त्म या निष्प्रभावी कर दिया जाए? क्या नई परिवर्तन से किसी भी प्रकार का दुरुपयोग पीड़ित या आरोपी के संदर्भ में नहीं होगा?
सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ कुछ तथ्यों पर विचार किया जो पहली नज़र में इस कानून के दुरुपयोग की डरावनी कहानी कहते थे जबकि उन तथ्यों की सिरे से अनदेखी की गई जो जातिगत दमन और घृणा दिखाते थे। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 से 2017 के बीच दलितों के विरुद्ध हिंसा में 86% की वृद्धि हुई, हर 15 मिनिट में एक दलित के विरुद्ध अपराध किया जा रहा है। साथ ही हर दिन 7 दलित औरतों-लड़कियों के साथ बलात्कार की वारदात घट रही है। हज़ारों मामले हैं जो बहिष्कार, हत्या, बलात्कार, लूट, घर जला देने, अपंग कर देने आदि के भय में रिपोर्ट ही नहीं किये जाते। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट को भी अपेक्स कोर्ट ने अनदेखा कर दिया। क्या यह डरावने हालात इन वर्गों के संरक्षण का सवाल नहीं रखते?

कानून बनाना संसद का दायित्व है, इसलिए इस कानून में बदलाव संसद की सामूहिक चेतना पर भी सवालिया निशान लगाता है जब उसने एससी-एसटी एक्ट को जानबूझकर कठोर बनाया ताकि जातीय घृणा रोकी जा सके। इस रूप में कानून बनाने के संसद के क्षेत्राधिकार में न्याय व्यवस्था द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप किया गया है। क्योंकि जहाँ विधायन स्पष्ट हों वहाँ न्यायपालिका को दिशानिर्देश देने की आवश्यकता या उसमें परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। फ़िर "बलोथिया वाद' में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम 1989 की धारा-18 भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 और 21 उल्लंघन नहीं करती क्योंकि सीआरपीसी की धारा-438 का निषेध विशिष्ट सामाजिक स्थितियों को देखते हुए किया गया था। भारतीय सामाजिक संदर्भों और संरचना पर  विचार किये बिना परिवर्तन का निर्णय एक ख़ास वर्ग को समर्थन देता है।

साथ ही, इस कानून को भातृत्व के अनुकूल बनाने की बात कहकर सुप्रीम कोर्ट जिस वर्ग यानि एससी और एसटी समुदायों से भातृत्व बनाए रखने का आग्रह करती है वो आग्रह भी भारतीय समाज को देखते हुए विरोधाभासी है। ऐसा आग्रह एक तरह से पीड़ितों से ही अपेक्षा है कि वे समाज में समरसता और भाईचारा बनाए रखें। जबकि पीड़ित वर्ग या तो अपनी पीड़ा में चीख़ रहा है या सुन्न हो गया है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय और आग्रह पीड़ितों को कानून से ख़ारिज करने के साथ-साथ न्याय की अंतिम किरण को भी ख़त्म करता है।  

मंगलवार, 8 मई 2018

"ख़ारिज होते संवैधानिक हकों के बीच वंचित तबके"


हाल ही में मध्यप्रदेश में एक घटना सामने आई कि पुलिस कांस्टेबल की भर्ती के दौरान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों की छाती पर एससी-एसटी लिखकर उन्हें जातिगत आधार पर चिन्हित कर अपमानित किया गया। बीते दिनों ही एक दूल्हे को सवर्ण समुदाय के लोगों द्वारा घोड़ी पर बारात सिर्फ़ इसलिए नहीं ले जाने दी गई क्योंकि वो दलित समुदाय से आता था। यहाँ तक कि मध्यप्रदेश पुलिस प्रशासन को उज्जैन जिले में बाकयदा सर्कुलर जारी करना पड़ गया कि दलित दूल्हों को घोड़ी पर बारात निकालने के तीन दिन पहले स्थानीय थाने में नोटिस देना होगा। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर के भौरा गाँव में सवर्णों ने दो मासूम बच्चों पर चोरी का इल्ज़ाम लगाकर उन्हें कुँए में उल्टा लटकाया उन पर पेट्रोल डाला और उनके प्राइवेट पार्ट्स ब्लेड से काट कर दिये। चंद्रशेखर रावण पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की अवधि 3 महीने और बढ़ाई गई। एक बार भी बेल पर कोई सुनवाई नहीं की गई। शाहजहांपुर के पिलखाना गांव में 15 वर्षीय दलित किशोरी को छेड़छाड़ का विरोध करने पर छत से फेंक दिया गया। उत्तरप्रदेश के बदायूं में ठाकुरों ने एक दलित बुजुर्ग व्यक्ति को मजदूरी करने से मना करने पर यह कहते हुए गांव की चौपाल पर बांधकर बेरहमी से मारपीट की,मूँछे ऊखाड़ी और पेशाब पिलाई कि "इनका है कौन, सरकार हमारी है"। 1 जनवरी 2018 को भीमाकोरेगाँव में हिंदू संगठनों द्वारा किये गए दंगों की मुख्य गवाह पूजा सकट की हत्या कर दी गई साथ ही उसके भाई और पिता को झूठे मुकदमों में जेल भेज दिया गया।
ऐसी एक-दो घटनाएं नहीं बल्कि हज़ारों घटनाएं हैं जिनमें कुछ रिपोर्ट की गई तो कुछ पर रिपोर्ट दर्ज ही नहीं की गई। 20 जनवरी 2018 के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद से तो ऐसी घटनाएँ और भी ज्यादा तेज़ी से बढ़ी हैं। ज़ाहिर है सवर्ण वर्ग को यह विश्वास है कि ऐसे कुकृत्य करने पर भी उन्हें कोई नुकसान या क़ानूनी डंडे का सामना नहीं करना है। जब एकतरफा तौर पर विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही वंचित तबकों के हकों को मारने पर आ जाएं तो न्याय की उम्मीद आख़िर किससे हो?
जहाँ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को न्यूनतम मानवाधिकारों से भी वंचित किया जाता हो, जहाँ जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाना सामाजिक गौरव का विषय हो, जहाँ वंचित वर्ग बुनियादी अधिकारों और सुविधाओं से भी महरुम हो वहाँ उनकी सुरक्षा और संरक्षण करने की बजाय उनके संरक्षण के लिए बनाए गए कानूनों को कमज़ोर किया जाना संदेहास्पद है। यह निर्णय उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन है। कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है जबकि यह भूमिका अब सुप्रीम कोर्ट निभा रहा है। न्याययिक अतिसक्रियता से एक कदम आगे बढ़कर कोर्ट लोक अधिकारों के निर्णय भी लेने लगा है। इसलिए केवल 4 महीनों के बेहद कम समय में व्यापक जनसमूह को प्रभावित करने वाला निर्णय ले लिया गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989,2015 का दुरुपयोग होने की दलील पर इस संरक्षण कानून को कमज़ोर कर देना न्यायिक व्यवस्था और सरकार की नीयत पर सवाल उठाता है। सुप्रीम कोर्ट को सिर्फ़ 4 महीने लगे यह निर्धारित करने में कई इस एक्ट का दुरूपयोग हो रहा है। जबकि इस मामले में कोई नोटिस नहीं लिया गया कि कितने मामलों में इस एक्ट के तहत सज़ा मुक़र्रर हुई है? इस कानून में तब्दीली का कोई ठोस आधार ना ही सुप्रीम कोर्ट के पास है और ना ही सरकारी वकीलों ने एक्ट के पक्ष में कोई दलील पेश की।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2016 की रिपोर्ट में भी यह तथ्य स्वीकार किया गया था कि पिछले 4 वर्षों में दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ अपराधों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। वहीं इस रिपोर्ट में इस तथ्य को भी स्वीकार किया गया कि  ऐसे मामलों में सज़ा होने की दर बेहद कम है। अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और मानव अधिकार आयोग तथा गैर सरकारी सर्वेक्षणों की तमाम रिपोर्ट्स में इस स्वीकार्य तथ्य कि दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ अपराध बढ़ें हैं फिर भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसा निर्णय लिया जाना वंचित तबकों को हाशिये पर धकेल देने की मंशा से लिया गया लगता है। रिपोर्ट्स से कम से कम एक बात साफ है कि एससी-एसटी एक्ट का अब तक सही से उपयोग ही नहीं हो सका है इसलिए ऐसे अपराध कम होने की बजाय बढ़ें हैं। 
20 जनवरी को हुए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुरूप नई व्यवस्था के अनुसार अपराध होने पर भी एससी-एसटी एक्ट के तहत पिछले तीन महीने में मामले दर्ज नहीं हुए, क्योंकि जाँच अधिकारी सहित सबूतों को तोड़ने-मरोड़ने के साथ जाँच प्रभावित करने की शक्ति शोषिक वर्ग/सवर्ण वर्ग के पास ही आ गई। इसी शक्ति के चलते 2 अप्रैल को हुए भारत बंद के बाद हज़ारों दलितों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें जेल में ठूँस दिया गया। बंद के दौरान मारे जाने वाले वर्गों की जान-माल को हुई नुकसान की भरपाई पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया। इस नए परिदृश्य में जातिगत विद्वेष को कानून का जामा पहनाकर दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ प्रयोग करने की नई परम्परा विकसित हो गई है।
वंचितों के ख़िलाफ़ खड़ी सरकार को न ही उनके हकों की चिंता है और ना ही उन पर बढ़ रहे अत्याचारों की। सरकार केवल दिखा रही है कि वो वंचित तबकों की हितैषी है, इसके उलट वो लगातार ऐसे निर्णय ले रही है जो इन तबकों को कदम-दर-कदम पीछे धकेल रही है। इसलिए अध्यादेश, संसद विशेष सत्र और पुनर्विचार याचिका जैसे औजारों के बाद भी इस पूरे मामले में सरकार की चुप्पी और सुप्रीम कोर्ट की हीलाहवाली मिलीभगत से जारी है। जब सरकार ही शोषण संरचना में बदल गई है तो संविधान और उसके होने के मायने वंचित तबकों के लिए स्याह अँधेरे के समान है। 

सोमवार, 3 जुलाई 2017

कलमुंही से चमरिया कहलाने तक........मेरा काला रंग बोलता है

वैसे तो लड़कियों के इनबॉक्स में रोज़ तमाम तरह के मैसेज आतें हैं, पर बीते दिनों कुछ लड़कियों के जो मैसेज आए उन्होनें मुझे लिखने पर मजबूर कर दिया। पहाड़ों पर घुमक्कड़ी की कई फ़ोटो के अपलोड के दौरान बहुत से कॉमेंट और मैसेज मिले, लेकिन मेरी लड़की दोस्तों ने जो लिखा वो लगभग कई बहुजन लड़कियों के अतीत-वर्तमान और रोज़मर्रा से जुड़ी प्रेक्टिसेस, उनके सपनों की ऊंचाइयों, समाज की  खाइयों, गढ़ रहे व्यक्तित्व, बनते-बिगड़ते विश्वास-आत्मविश्वास की बात है।
एक लड़की ने लिखा है कि मैं आपकी ही तरह साँवली हूँ, बचपन से लेकर आज तक भी हमेशा सबने इग्नोर ही किया, मेरे साँवले रंग के पीछे मेरी तमाम योग्यतायें फीकी ही मानी जाती रही है, मैं खुद भी सबकी सुन-सुन कर इतनी दब्बू हो गई हूँ कि मान ही लिया है कि मैं सुंदर नहीं हूं इसलिए ही फ़ेसबुक पर भी कभी अपनी फ़ोटो लगाने की हिम्मत नहीं कर पाई। पर आपको देखकर एक नया हौसला मिला है, आप साँवले होते हुए भी कितना स्मार्टली-बोल्डली ख़ुद को कैरी करती हैं, आपके कॉन्फिडेंस की क़ायल हूँ मैं। आपको देखकर एक नया आत्मविश्वास मिला कि खूबसूरती गोरी चमड़ी की मोहताज़ नहीं। अब मैं भी अपने काले रंग को लेकर हीन नहीं महसूस करूँगी।
दूसरा मैसेज एक और लड़की ने किया है कि दीदी मेरा रंग भी आपकी तरह काला है, हम तीन बहनें हैं और सभी का रंग साँवला ही है। काले रंग वज़ह से हर जगह लोग नाक-मुँह सिकोड़ते हैं। और दलित हूँ लोग रंग देखकर ही अंदाजा लगा लेते हैं। मेरी दीदी की शादी में बहुत मुश्किल आ रही है, सिर्फ़ रंग की वज़ह से बहुत दहेज़ मांग रहें हैं लड़के वाले जबकि मेरी दीदी गवर्मेंट जॉब में है। मैं जानती हूँ मेरे और मेरी छोटी बहन के साथ भी यही होगा। पर मैं ऐसे नहीं चाहती, मुझे मंजूर नहीं कि लोग मुझे मेरे रंग से नापें। आपको फ़ेसबुक पर बहुत दिनों से पढ़ रही हूँ, आपसे हिम्मत मिलती है, आपमें बहुत कॉन्फिडेंस है, मैं भी ऐसे ही बनना चाहती हूँ।
अगला मैसेज है जो मराठी में है,जिसका हिन्दी अनुवाद लिख रही हूँ। मैम आप बहुत अच्छा लिखती हो, मेरे पापा को मैंने ही बताया था कि अपने समाज की ही है यह लड़की। पापा स्मार्ट फोन नहीं चला पाते हैं पर हमेशा आप जो भी लिखती हो, मुझसे पढ़वाते हैं। मैंने आपके मनाली टूर की फ़ोटो भी दिखाई है घर में सभी को। आपकी वजह से मुझे भी कॉलेज से जा रहे ट्रिप पर माथेरान जाने की परमिशन मिल गई है। इसलिए आपको बड़ा वाला थेंक्स। आपसे ज़िंदगी जीना सीख रही हूं।
एक और मैसेज मिला जो एक शादीशुदा लड़की का है, जो लिखती है कि मेरा सपना था कि पूरी दुनिया देखूँ, घूमना चाहती थी, पढ़ना चाहती थी पर बारहवीं के तुरंत बाद घरवालों के दबाव में शादी करनी पड़ी, मैं अपने सपने जी ही नहीं पाई, अब बस हॉउस वाइफ हूँ घर, बच्चे और पति बस। काश! कि पैसे होते तो मैं भी आपकी तरह पढ़ पाती, नौकरी करती और पूरी दुनिया घूम पाती। आपको इस तरह घूमते देख रही हूँ तो ऐसे लग रहा है कि हम साथ-साथ घूम रहें हैं। आप पूरी दुनिया घूमना, आपके पीछे-पीछे ही सही मेरे सपने भी पूरे हो जाएंगे।
ये मैसेज चार अलग-अलग लड़कियों के थे, नाम डिस्क्लोज नहीं कर रही हूँ। ये सभी बहुजन लड़कियाँ ही हैं, ये चार मैसेज चार परिस्थितियों को आपके सामने रखतें हैं। इनबॉक्स में जवाब तो दे चुकी हूँ पर पोस्ट लिखा आप सभी के लिए। काला होना क्या होता है? दलित होना क्या होता है? लड़की होना क्या होता है? और इन सब बातों का एक साथ होने के क्या मायने हैं जानती हूं मैं। बचपन से लेकर अब तक भी भुगता और भुगत रही हूँ बहुत कुछ। इस दुनिया का सबसे वर्स्ट कॉम्बिनेशन है काली दलित लड़की होना। मैंने बचपन से ना केवल जातिवाद का दंश झेला है बल्कि अपने काले रंग के साथ लगातार रंग भेद भी झेल ही रही हूँ। बचपन से ही हमारे आसपास के लोग काले रंग को लेकर इतना हीन महसूस करा देतें हैं कि हम खुद को बदसूरत मान ही लेते हैं। मेरे साथ भी यही मामला था। लोग मेरा रंग देख कर बड़ी आसानी से मुझे नीच जात की हूँ "रंग से जाति पता लगाओ प्रतियोगिता" से जान लेते थे। बचपन में नवरात्रों में कन्या भोजन में खीर-पुड़ियाँ खिलाने के लिए लोग बुलाते तो रंग देखकर ही; मैं और मेरी जैसी काली लड़कियाँ पहले ही बाहर रोक दी जाती। रंग से नीच जात पहचानना बड़ा आसान सा फंडा है हमारे सो कॉल्ड महान देश में। फिर बाहर ही दोना-पत्तल में खीर-पूड़ी मिलती जो उस वक़्त घोर ग़रीबी में मेरे लिये बहुत बड़ी बात थी, फ़िर भले ही वो दो हाथ दूर से फेंक कर दी जाती रही हो। खैर जो दलित लड़कियाँ गोरी होती हैं, उनके साथ भी बड़ा बुरा व्यवहार होता है। लोग उनकी जात गोरे रंग की वजह से पहचान नहीं पाते हैं और फिर गोरी दलित लड़कियों को बोलते हैं कि जरूर उनकी माँ किसी सवर्ण के साथ सोई होगी। पर मैं तो काली हूँ इसलिए सीधे-सीधे पहचानी जाती रही हूँ।
बचपन में मैं भी पहनना चाहती थी चटख लाल रंग की फ़्रॉक और बनना चाहती थी लालपरी। बहुत मन होता था कि काश! डार्क नीले रंग के कपड़े पहन पाऊं पर मम्मी-पापा मार-पीट कर वही सफ़ेद, हल्का ग़ुलाबी, हल्का पीला रंग घुमा-फिराकर दिला देते थे। कॉलेज आने तक भी मुझमें कॉन्फिडेंस नहीं था कि डार्क या पसंद के रंग पहन पाऊं। क्योंकि तब तक काले रंग, नीच जात की लड़की होने से जुड़े तमाम भेदभाव को मैं नीचे सिर झुका कर स्वीकार की हुई थी।स्कूल-कॉलेज में यही एक मात्र यूएसपी थी कि पढ़ने में अच्छी थी और सरकारी स्कूल में अंधों में काना राजा टाइप हालात थे। चाहते हुए भी कभी स्कूल में मैडम ने किसी डाँस या नाटक में भाग नहीं लेने दिया क्योंकि उसमें सुंदर मतलब गोरी लड़कियां ही चलती थी। मैं कभी स्कूल में नाच ही नहीं पाई और ना ही कभी मुख्य अतिथियों का स्वागत करने मिला काले होने की वजह से।
बहुत छोटे से गाँव से दिल्ली तक के सफ़र में वो तमाम दिक़्क़तों से लड़ा है, अपने-परायों से जूझा है इस कॉन्फिडेंस तक आने में। पूरे समय खुद को छुपाती-बचाती नज़रें नीची रखी हुई हीनभावना से ग्रस्त दब्बू दीपाली से आज की दीपाली का सफ़र में बहुत कुछ झेल कर संघर्ष करके सीखा, बुना, गुना, पचाया और तचाया है। ये सब बातें इसलिए लिख रही हूँ दोस्तों क्योंकि ये सब तमाम लड़कियों/लड़कों के संघर्ष हैं अपनी-अपनी तरह के। बहुजनों के लिए समाज में ऐसी परिस्थियां या प्रिविलेज नहीं हैं कि उन्हें ज़िंदगी की ज़मीन उर्वर मिले। और मैं कोई विशेष नहीं हूँ हाँ ख़ुद को बेहतर इंसान बनाने की कोशिश लगातार कर रही हूँ।
रंग भेद के साथ जातिभेद का डबल टॉर्चर और लिंगभेद की वर्स्टनेस के साथ उनसे जुड़ी तमाम मुश्किलों से लड़कर आज वाला आत्मविश्वास ला पाई हूँ। बाबासाहेब का शुक्रिया कहने के लिए शब्द नहीं बचते मेरे पास कि कुछ भी कह पाऊँ। अगर पढ़-लिख नहीं पाती तो शायद ये दीपाली भी नहीं होती। तो मेरे सभी बहुजन दोस्तों ख़ूब पढ़िए, लड़िए हम लोगों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है और पाने के लिए पूरी दुनिया है।

#i_am_because_he_was

बुधवार, 21 जून 2017

प्रश्न भँवर

बेटी- बाय माँ! जा रही हूँ।

माँ- अच्छा! देख लाली कोई लड़का कुछ कहे ना तो कुछ कहना मत, चुपचाप नज़रें झुका के वापस आ जाना। ऐसे दुष्टों के मुँह क्या लगना। तेरे पापा-भैया को पता लगा तो स्कूल बंद करवा देंगे। जा।
                             ******♀*****

बेटी-  नुक्कड़ पर लड़के सीटियाँ बजाते हैं, गंदी-गंदी बातें बोलते हैं। आना-जाना मुहाल कर रखा है। रोज़-रोज़ की बात है आप ही कहो कब तक चुप रहूँ।

पापा-  अब अकेले जाने की ज़रूरत नहीं है, भाई के साथ जाना। वरना रहने दो घर पर ही रहो। सिलाई सेण्टर है बाजू में सीखो सिलाई, काम आएगा।

भैया-  ज़रूरत क्या है कॉलेज जाने की। मैं तेरा प्राइवेट फ़ॉर्म भरा दूँगा। कॉलेज में कितनी पढ़ाई होती है हमें भी पता है। कोई ज़रूरत नहीं है जाने की।

माँ-  चल, अंदर चल बेटा। रो मत।
     तुझे बोला था ना, अब मैं भी क्या बोलूँ तेरे
      पापा के आगे।
                             ******♀******

बेटी-  आज मैंने उसे खींच कर दिया तमाचा। अक्ल ठिकाने ज़रूरी है ऐसे घटिया लोगों की।

माँ-  क्या? चांटा मार दिया!!!!
      क्यों मारा लाली। नहीं मारना चाहिए था।
      उन्होंने कुछ कर दिया तो? लाली लड़कों का कोई भरोसा नहीं, पढ़ाती नहीं पेपर में, लड़के ऐसिड फेंक देतें हैं, उठा लेतें हैं गाड़ी में। अब तू कहीं बाहर नहीं जाएगी घर में ही रहना।

भैया-  मारा क्यों?? गुंडा है वो लड़का। समझा दे माँ इसे अब ये घर में ही रहेगी।
पापा-  अब घर में ही रहो, कोई ज़रूरत नहीं पढ़ने-लिखने की, ख़ूब पढ़ लिया। अब शादी करेंगे इसकी।

चाचा-चाची-  बेटा ज़रूरत क्या है कॉलेज जाने की। अपनी मम्मी और चाची को देखो इंटर तक पढ़ी हैं, अच्छे से घर संभाल रही। दुनिया बहुत ख़राब है बेटा समझो इस बात को।

बेटी-  लेकिन पापा........

पापा-  बस!!!!! बाहर जाकर ख़ूब मुँह चलाना सीख गई है। समझा लो इसे, जो कह दिया वो कह दिया।

भैया-  सब आपके ही लाड़-प्यार का नतीज़ा है। बड़ी आई पढ़ने वाली, जैसे कलेक्टर बनेगी।रोड पर खी-खी-खी करेगी तो कोई भी लड़का ग़लत ही समझेगा।

माँ-  चल लाली।...........
                             ******♀******

बेटी-  माँ वो चाचा है ना उनकी नज़रें ठीक नहीं लगती मुझे। उन्होंने उस दिन................क्या बोलूँ?? उस दिन मुझे छाती में हाथ लगाया है, और पकड़ने की कोशिश की, मैं छूट कर भागी। बहुत गंदा लगा माँ। मुझे बहुत डर लगता है।

माँ-  पागल हो गई है तू????
      तेरे चाचा हैं वो। यह बात किसी से बताना मत बेटा। तेरे पापा-भैया को पता लगा तो प्रलय आ जायेगा। औरत की जात चुप ही रहे तो अच्छा है बेटा। तू हमारे घर की इज़्ज़त है, हमारी इज्ज़त मत ख़राब करना।

भैया-  ऐसे चिपके-चिपके कपड़े पहन के क्यों मँडराती रहती है दालान में। कोई ढंग के कपड़े क्यों नहीं दिलाती हो माँ इसे। आँगन में खड़े होने की क्या ज़रूरत है। किसी को क्या बोलें, जब अपना ही सिक्का खोटा हो। कुछ कहना मत इस बारे में किसी से। घर की इज़्ज़त लुटवायेगी एक दिन ये।

पापा-  बेटी नहीं, कलंक है ये। क्या बोलूंगा मैं अपने भाई से। नाक कटा रखी है इस लड़की ने। जितनी जल्दी हो सके इसको विदा करके गंगा-घोड़े नहा जायें हम लोग। अब किसी के सामने मुँह मत खोलना।
                              ******♀******

फ़िर आप पूछतें हैं कि क्यों लड़कियाँ विरोध नहीं करती। आपने सिखाया क्या घर से ? सीखने दिया क्या उसे छोटेपन से ? उसने कोशिश की तो साथ खड़े हुए क्या ?  आप समझे क्या उसे ???

दायरे से पार

"क्या तुमने कभी कुर्सी खरीदी है?---हाँ।
तो क्या तुमने जाते ही पहली कुर्सी पसंद कर ली और खरीद ली??-----नहीं ना।
कोई कुर्सी दिखने में सुंदर होती है पर बैठने में अच्छी नहीं, कोई बैठने में अच्छी होती है पर दिखने में नहीं, कोई नर्म तो, कोई सख़्त सी लगती है ; किसी में कुछ अच्छा लगता है, तो कुछ बुरा। कितनी कुर्सियाँ देखते हैं हम अपने लिए एक परफेक्ट और सुपर फाइन कुर्सी खरीदने से पहले...........फिर अपना लाइफ पार्टनर चूज़ करने से पहले ऑप्शन देखने में क्या प्रॉब्लम है? सारे ऑप्शन चेक करके एक सुपरफाइन पर्सन सेलेक्ट करना चाहिए।"

क्या वाक़ई अपने लिए किसी सुपर फाइन पर्सन की तलाश की प्रोसेस में रिश्ते बनाना और तोड़ कर अलग हो जाना; ठीक वैसे ही है जैसे कुर्सी का सिलेक्शन ??

हमारे समाज में यह सुपरफाइन सिलेक्शन की बाकायदा लंबी परंपरा चली आ रही है। शादी के लिए लड़की-लड़का देखने के नाम पर सुपरफाइन पर्सन को सेलेक्ट करने के लिए पुरे कुनबे के सभी लोग खा-पीकर ; डकार लेकर हाथ झाड़ते हुए रिश्ते के लिए मना करते हुए बिलकुल भी नहीं झिझकते। बल्कि हर रिजेक्शन के साथ समाज में लड़की की विवाह वैल्यू कम होने के साथ-साथ उसका जीवन दूभर होता जाता है। गौरतलब है कि लड़की (गौरवर्ण, सुंदर, साँचे में ढला शरीर, सुशील, संस्कारी,पढ़ी-लिखी, गृहकार्य में दक्ष, टीचर की जॉब में हो तो और भी बढ़िया, दहेज़ लेकर आये) और लड़का (अच्छा कमाता हो, बड़ा सा घर हो, आर्थिक सक्षमता सबसे इम्पोर्टेन्ट पर सूरत अधिक महत्वपूर्ण नहीं, साथ ही गुड लुकिंग और सरकारी सेवारत को एक्स्ट्रा अंक दिए जायेंगे) ढूंढने का यह कार्यक्रम तब जबकि मामला अपनी ही जाति-धर्म और बिरादरी का हो। देखने वाली बात यह है कि समाज में सुपर फाइन पर्सन होने की समाज उद्घोषित और संचालित परिभाषा में दोनों ही पक्ष के लिये आर्थिक तत्व प्रमुख भूमिका निभाता है। क्योंकि बाकी के गुण तत्वों में धन को महत्ता देते हुए सुविधानुसार उन्नीस-बीस किया जा सकता है। विभिन्न जाति-धर्मों के परिचय सम्मेलनों में तो सामूहिक स्तर पर सिलेक्शन और रिजेक्शन का सार्वजानिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, जिसमें लड़के- लड़कियाँ उत्पादों की भांति मंच पर उपस्थित होते हैं; और बाज़ार में सामान की तरह उन्हें पसंद-नापसंद किया जाता है। टेक्नॉलाजी प्रयोग बढ़ने के साथ-साथ आजकल कई तरह की मेट्रीमोनियल साइट भी इस तरह की सुविधा उपलब्ध कराती हैं। सुपरफाइन पर्सन ढूंढने के लिए उपस्थित विकल्पों में से चयन या कोई और बेहतर खोज लेने की उत्कंठा में लोग कई रिजेक्शन करते हैं। स्थापित मान्यताओं को निभाते समय लोग यह भी नहीं सोचते कि इस रिजेक्शन का रिजेक्टेड पर्सन पर क्या फर्क पड़ेगा। क्या किसी ऑब्जेक्ट की तरह इंसान को रिजेक्ट कर दिए जाना उसे एक निर्जीव संरचना मान लेना नहीं है ? रिजेक्शन और सिलेक्शन की इस प्रोसेस में लड़कियाँ और उनके घरवाले कितनी मानसिक और सामाजिक तकलीफों से गुज़रतें हैं। और किसी लड़की की सगाई होकर टूट जाना या शादी टूटना कितना बड़ा ठप्पा या कलंक होता है जबकि समाज में ऐसी टूटन का लड़कों के लिए कोई टैबू नहीं बना हुआ है। यह चिंता और विचार का विषय है।

सेम प्रोसेस आजकल हम यंग्सटर्स में अपने लिए गर्लफ्रेंड-बॉयफ़्रेंड को सेलेक्ट करने और रिजेक्ट करने के लिए भी होती है। अधिकतर देखने में आता है कि लड़के प्यार के नाम पर सेक्सुअल रिलेशन्स बनाने के बाद परिवार को बीच में लाकर अलग हो जाते हैं इसमें सबसे ज्यादा नुकसान लड़कियों का ऊठाना पड़ता है, ना केवल शारीरिक और भावनात्मक स्तर पर बल्कि सामाजिक,आर्थिक, बौद्धिक स्तर पर भी। कई लड़कियाँ इस तरह के शोषण का शिकार होती हैं, बर्बाद होती हैं और यहाँ तक कि जान से भी हाथ धोना पड़ जाता है। इस तरह के रिजेक्शन कई बार लोगों की पूरी ज़िन्दगी पर भी भारी पड़ जाते हैं। नई पीढ़ी में होने वाले ये ब्रेकअप्स भी एक तरह से रिजेक्शन ही है। बहुत सपनों और उम्मीदों से बना रिश्ता परिवार तक जाने और शादी के अंजाम से पहले ही दम तोड़ जाता है। परिवार के पास पहुँचने पर जाति-धर्म-बिरादरी-स्टेटस का पंगा तो अलग से होना ही होता है। क्योंकि जीवनसाथी खुद की इच्छा से चुनने को लेकर समाज अभी पूरी तरह ना उदार है और ना ही परिपक्व। मैं यहाँ दो लोगों के बीच के रिश्ते और ब्रेकअप की बात कर रही हूँ। ऐसे नहीं है कि लड़के इस तरह की रिजेक्शन का सामना नहीं करते। हाँ लड़कियों की तुलना में जरूर कम नुकसान होता है उनका। क्योंकि समाज लड़कों के लिए इतना कठोर नहीं है।
यह सच है कि चूँकि रिश्ता दो लोगों से शुरू होता है तो इसलिये इसमें दो लोगों के बीच की अंडरस्टैंडिंग, सोच-समझ, आदतें, जरूरतें और सहूलियतें ज्यादा मायने रखती हैं। इंसान को कुर्सी या किसी और निर्जीव के समकक्ष रखकर रिजेक्शन को जस्टीफ़ाइड करना कितना बचकाना सा तर्क है। ज्यादा बेहतर है कि हम अपनी पसंद के अनुरूप ही रिश्ता बनाएं ना कि प्रोडेक्ट की तरह कोई ट्रॉयल लेने के लिए। किसी की भावनाओं से खेलना, अपनी सुविधानुसार हर तरह से यूज़ करना और परिवार का बहाना बनाकर अलग हो जाना किसी भी रूप में जस्टीफ़ाइड नहीं हो सकता फिर चाहे ऐसा कोई लड़का करे या लड़की।
किसी भी इंसान को रिजेक्शन हमेशा तकलीफ देता है। अधिकतर देखने में आता है कि इस वजह से लोग कई बार अवसाद और मानसिक तनाव का शिकार हो जाते हैं। रिजेक्शन से उपजे मानसिक और भावनात्मक आघात की तकलीफ़ इंसान को ज़िन्दगी और मानवीय संबंधों के प्रति नकारात्मक बना देती है। सुपर फाइन कुर्सी के सिलेक्शन और इंसान के सिलेक्शन में कोई भी तुलना सम्भव ही नहीं है। यह उदाहरण ह्यूमन को ऑब्जेक्टफाइड करता है।
ऐसी भावनात्मक और ब्रेकअप पीड़ा से बचने के लिए बेहतर है कि हम अपने व्यक्तित्व की मूल प्रवृति कि हम ब्रेन ओरियेंटेड व्यक्तित्व (दिमाग से चलने और जीने वाले) हैं या हार्ट ओरिएंटेड व्यक्तित्व (दिल से चलने और जीने वाले) को पहचान कर की ही किसी रिश्ते में जायें। क्योंकि एक व्यक्ति दिल और दूसरा व्यक्ति दिमाग ओरिएंटेड हो तो हार्ट ओरिएंटेड व्यक्ति भावुक और अधिक संवेदनशील होने की वजह से बहुत ज्यादा तकलीफ में रहेगा और दूसरा उसे हर तरह से डोमिनेट करेगा जबकि दो हार्ट ओरिएंटेड या दो ब्रेन ओरिएंटेड लोगों का रिश्ता ज्यादा बेहतर है और......इसे समय के साथ और भी बेहतर बनाया जा सकता है। यदि हम सभी अपनी मूल प्रवृति के अनुरूप लोगों से जुड़ेंगे और संबंधों का निर्वाह करेंगें तो जीवन में टूटन और बिखराव की त्रासदी की सामना करने से बच सकेंगें। जीवनसाथी के चयन की स्वतंत्रता प्राप्त होना ही महत्वपूर्ण नहीं ही बल्कि सही हमसफ़र के चयन में अपने मूल स्वभाव को पहचान कर उसके अनुरूप चयन करना भी उतना ही अधिक महत्वपूर्ण है। किसी संबंध की शुरूआत यदि परिवार से इतर दो लोगों से ही हो रही है तो व्यक्ति को पहचानने और उसे परखने के बाद ही उसे सहमति देना सही है। इससे दो लोग और उनका परिवार किसी अप्रिय स्थिति में जाने से बचेंगे और साथ ही एक सही जीवनसाथी भी पा सकेंगे। दो सममूल प्रवृति वाले लोगों के जुड़ने-मिलने से ना केवल संबंधों के टूटन-बिखराव काफी हद तक कम होंगे बल्कि मानसिक संतुष्टि का स्तर भी बढ़ेगा।

महान बहुजन वीरांगना उदादेवी पासी

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